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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2801
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - २

ऋग्वेद संहिता :
अग्नि सूक्त, विष्णु सूक्त, पुरुष सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त एवं वाक् सूक्त

प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

(१) अग्निसूक्तम्

अग्निः पूर्वे भिऋषिभिरीडयो नूतनैरुत। स दे वां एह वक्षति ॥१॥

पदपाठ - अग्निः। पूर्वेभिः। ऋषिभिः। ईड्यः। नूतनैः। उत। सः। देवान्। आ इह। वक्षति। अन्वय - अग्निः पूर्वेभिः उत नूतनैः ऋषिभिः इड्यः सः देवान् इह आ वक्षति।

अनुवाद - अग्नि देवता प्राचीन और नवीन ऋषियों के द्वारा स्तुति किये जाने योग्य। वह देवताओं को यहाँ (इस यज्ञ में) ले आवें।

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अग्निां रयिमश्नव त्पोषमेव दिवेदिवे। यशस वीरवत्तमम् ॥२॥

पदपाठ - अग्निनना। रयिम्। अश्नवत। पोषम्। एव। दिवेदिवे। यज्ञसम्। विरवत् ऽत्तमम्।

अन्वय - अग्निना दिवेदिवे पोषम् एव यशसे वीरक्तमं रयिम् रश्नवत्।

अनुवाद - (अग्नि की पूजा करने वाला व्यक्ति) अग्नि के मध्य से प्रतिदिन वृद्धि को ही प्राप्त होने वाले यश से युक्त और श्रेष्ठ वीर पुरुषों से युक्त धन को प्राप्त करें अर्थात् अग्नि के द्वारा यजमान ऐसा धन प्राप्त करें। जो प्रतिदिन बढ़ने ही वाला हो और जो वर तथा श्रेष्ठ वीर पुरुषों से परिपूर्ण हो।

व्याकरण - दिवेदिवे = दिन शब्द का सप्तमी एकवचन। 'सुपां सुलुक्'। पोषम् पुष् + घञ्। यशसम् = यज्ञः यस्य अस्ति इति, यशस + अच वीरवत्तम् = वीर + मतुष् + तमप्। अश्नवत् = अश ( प्राप्त करना या व्याप्त होना) + लेट्, प्र. पु. एक.।

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अग्रे यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति ॥३॥

 

पदपाठ - अग्नै यम्। यज्ञम् अध्वरम्। विश्वतः। परिभूः असि। इत् देवेषु गच्छति।
अन्वय -अग्नै ! यम्। अध्वरं यज्ञं विश्वतः परिभूः असि स इत देवेषु गच्छति।

अनुवाद - हे अग्नि ! (तुम) जिस हिंसा रहति यज्ञ को चारों ओर से व्याप्त करके स्थित होते हो, वह यज्ञ ही देवताओं में जाता है। अर्थात् देवताओं को प्राप्त होता है।

व्याकरण - विश्वतः = विश्व + तसिल्। परिभूः = परि + भू + विवप्। असि - अस + लट्, म. पु. एक.। गच्छति गम् + लट्, प्र. पु. एक.।

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अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चिन्तश्रवस्तमः। देवो देवेभिरागमत् ॥४॥

पदपाठ -
अग्निः होता कविऽक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः दे वो दो वेभिरागमत्।
अन्वय -होता कविकतुः सत्यः चित्रश्रवस्तमः अग्निः देवः देवेभिः आगमत्।

अनुवाद - यज्ञ में देवताओं को बुलाने वाला, उत्कृष्ट बुद्धि वाला, सत्यशील तथा अतिशय रूप में विविध कीर्तियों वाला अग्नि देवता ! अन्य देवताओं के साथ इस यज्ञ में आयें।

व्याकरण - कविक्रतुः = कविक्रतुः यस्य सः बहुब्रीहि। चित्रश्रवस्तमः = चित्रंश्रवः। यस्य सः। चित्रश्रवाः अतिशायी चित्रश्रवाः इति चित्रश्रवस्तमः (बहुब्रीहि ), चित्रश्रवास् + तम्। देवेभिः = देवं (लौकिक संस्कृत) तृ. बहु, यह वैदिक रूप है। वेद में कभी-कभी 'बहुलं छन्दन्सि' सूत्र से भिस् (भिः) को ऐस् (ए) आदेश का अभाव हो जाता है। गमत् गम + लेट् प्र. पु. एक. सायण ने इसे लाट मानकर कहा है कि छत्व का अभाव तथा उकार का लोप छान्दस है। इस प्रकार गम्त् = गच्छतु।

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यंदङ्गदाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिएयसि। तेवक्तत्स व्यमङ्गिरः ॥ ५॥

पदपाठ - यत्। अङ्ग। दाशुषे। त्वम्। अग्नै भद्रम्। करिष्यसि। तव। इत्। तत। सत्यम्। अङ्गिराः॥

अन्वय -अंङ्ग अग्रे। त्वम् दाशुषे वत् भनेँ।          अंङ्गिरः। तत् तव इत् सत्यम्।

अनुवाद - हे अग्नि ! तुम हवि प्रदान करने वाले यजमान के लिए जो कल्याण करोगे, हे हे अंङ्गिरा ! वह तुम्हारा ही अर्थात् तुम्हारे ही सुख का साधन है। यह सत्य है।

व्याकरण - अङ्ग - किसी को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए प्रयुक्त सम्बोधनात्मक निपात्। दाशुषे दाश (देना) + क्वसु प्रत्यय च. एकवचन।

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उप तवाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। मो भरन्त एमेसि ॥ ६॥

पदपाठ - उप। त्वा। अग्ने। दिवेऽदिवे। दो षाऽवस्तः धिया। वयम्। नमः भरन्तः।

अन्वय -दोषवस्तः अग्नेः ! वयं दिवेदिवे नमः भरन्तः त्वा उप आ इमसि।

अनुवाद - हे रात्रि को प्रकाशित करने वाले अग्नि ! हम लोग प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक नमस्कार करते हुए तुम्हारे समीप आते हैं।

व्याकरण - भरन्तः = भृः ( धारण करना) + शत + प्र. बहु। इमसि। इमसि = इमः (लौकिक संस्कृत) इ (जाना) + उ + पु. बहु. 'इदन्तो मसि' सूत्र से वेद में कभी-कभी 'म' का वसि हो जाता है।

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राजन्तमध्व राणां गोपामृतस्य दीदिविम्। वर्धमान स्वे दमे ॥ ७ ॥

पदपाठ -
राजन्तम्। अध्वराणाम् गोपाम्। ऋतस्य। दीदिविम्। वर्धमानम्। स्वे। दमें।
अन्वय -राजन्तम् अध्वराणाम् गोपाम् ऋतस्य दीदिविम् स्वे दमें वर्धमानम्।

अनुवाद - देदीप्य मान प्रकाशित हिंसा रहित यज्ञों के रक्षक सत्य से प्रकाशक अपने घर में बढ़ते हुए तुम्हारे समीप हैं। अग्नि में आहुति डालते समय अग्नि को देखकर शास्त्र प्रसिद्ध यज्ञ - फल का स्मरण हो जाता है। अतः अग्नि को यज्ञ फल का घोतक कहा गया है।

व्याकरण - राजन्तम् = राज (प्रकाशित होना) + शतृ, द्वितीया एक.। दीदिविम् = दिव + क्विन, द्वित्व हुआ। अर्धमानम् = वृध + शानच्।

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(२) विष्णु सूक्त

विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि। यो अस्कभायदुन्तारं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रे धोरुगायः ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के (१/१५४) अर्थात् प्रथम मण्डल के १५४ वें सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि दीर्घतमा, देवता विष्णु तथा छन्द त्रिष्टुप हैं।

प्रसंग - उक्त मंत्र में विष्णु के पराक्रमपूर्ण कार्यों का वर्णन किया है। उनके परमपद अथवा सर्वोच्च लोक का महत्व बताया गया है।

हिन्दी अनुवाद - मैं विष्णु के वीरतापूर्ण कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करता हूँ, जिस तीव्रगति वाले ने तीन डग भरकर सम्पूर्ण भौतिक लोकों को नाम दिया जिसने द्युलोक को स्थिर कर दिया।

व्याख्या - मैं दीर्घतमा विष्णु के वीरता से भरे क्रिया-कलापों का संक्षिप्त वर्णन ही कर रहा हूँ, विष्णु ने अपने वामन अवतार में अपने तीन डगों से तीन लोकों में नाप डाला। इसी महान् कार्य के कारण विष्णु पुराणों में 'त्रिविक्रम्' से प्रसिद्ध हुए। इस कार्य से विष्णु ने विस्तृत रूप से यश प्राप्त किया और साथ ही सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को स्वयं में व्याप्त कर दिया।

टिप्पणी - विष्णो = विष् + नु (न् को ण) षष्ठी एकवचन। वीर्याणि = वीर् + यत् (य) नपुसंक उरु + गा + युक् लिङ्ग द्वितीया विभक्ति बहुवचन। वाचम = बू (लुङ्ग) उत्तमपुरुष एकवचन। उरुगायः =(य्) + अण् (अ) त्रेधा = त्रिधा + धा, 'इ' को गुण विचक्रमाणवि + क्रमा + कानच् (आन्) के 'न' का 'ण'। पार्थिवानि = पृथिवी + अण् (अ) नपुसंक लिङ्ग द्वितीया बहुवचन। विममे वि + मा ( लिट्, प्रथम, पुरुष एकवचन )। उत्तरम् = उत् + तरत् (तर) सधस्थम् = सह + स्था + क (अ), सह के 'ह' को 'ध्'। अस्कभायत् = स्कम्भ् लङ् लकार प्रथम पुरुष एकवचन। 

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प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो: गिरिष्ठाः यस्योरुषु जिषु विक्मणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के (१/१५४) अर्थात् प्रथम मण्डल के १५४ वें सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि दीर्घतमा, देवता विष्णु तथा छन्द त्रिष्टुप हैं॥

प्रसंग - उक्त मंत्रानुसार विष्णु सर्वोच्च स्थलों, पर्वत-शिखरों आदि पर घने भयानक वनों में विचरण करते हुए अपने त्रिविक्रमत्व के लिए जाने जाते हैं।

हिन्दी अनुवाद - भयानक वन में चरने वाले पशु के समान पर्वत पर स्थित विष्णु वीरता के कारण पूर्वोक्त प्रकार से स्तुत हैं जिसके विशाल तीन डगों में सम्पूर्ण रूप से सभी लोक निवास करते हैं।

व्याख्या - विष्णु सर्वोच्च स्थलों जैसे सूनसान जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों आदि पर घने भयानक वनों जहाँ जंगली पशु आदि विचरण करते हैं, वहीं पर अर्थात् पृथ्वी, आकाश, द्युलोक को तीन पाद-क्षेपों में सम्पूर्ण रूप से सभी लोक में निवास करते हैं। हम कह सकते हैं कि विष्णु ने अपने विशाल पद-क्षेप से समग्र रूप में सारे विश्व को अपने तीन डगों में ही व्याप्त कर लिया है। उनका लोक विष्णु लोक या बैकुण्ठ लोक के नाम से जाना जाता है, जहाँ अमृतत्व (मधु) सदैव विद्यमान है।

टिप्पणी - मृगः = मृ + गम् + ड (अ)। कुचरः = कु + चर् + ट (अ) गिरिष्ठा = गिरि + स्था + क्विप् (स् का ष्) तथा (थ् का ठ्) वीर्येण = वीर + यत् (य) शब्द के अन्तिम 'अ' का लोप तृतीया विभक्तिं एकवचन। स्तवते = 'स्तु' धातु कर्मवाच्य, लट्लकार प्रथम पुरुष एकवचन। विक्रमणेषु = वि + क्रम + ल्युट ( युवौरनको सूत्र से यु का अन्) सप्तमी बहुवचन। अधिक्षयन्ति = अधि + क्षि, लट् लकार, प्रथम पुरुष, बहुवचन।

अक्षियन्ति में 'क्षि' धातु निवास करने का अर्थ देती रही है। इसी 'क्षि' धातु से 'क्षेत्र' शब्द निष्पन्न है।

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प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म गिरिक्षित उरुगायाम वृष्णे। य इदं दीर्घ प्रयत सधस्थमेको विममे त्रिभिरित्यदेभिः ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के (१/१५४) अर्थात् प्रथम मण्डल के १५४ वें सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि दीर्घतमा, देवता, विष्णु तथा छन्द त्रिष्टुप हैं॥

प्रसंग - विष्णु ने अपने वामन अवतार में अपने तीन डगों से तीन लोकों को नाप डाला। उक्त मंत्र में विष्णु के इस महान् कार्य का वर्णन किया गया है।

हिन्दी अनुवाद - पर्वतों पर निवास करने वाले, अपने यश के लिए प्रसिद्ध मनोरथों की वर्षा करने वाले शक्तियुक्त विष्णु को हमारा स्तवन प्राप्त हो, जिसने अपने तीन पदों से ही इस विशाल जगत् को नाप डाला।

व्याख्या - विष्णु जो पर्वतों पर निवास करने वाले अपनी कीर्ति से सभी के (जनमानस) के हृदय में रहने वाले, यथा आवश्यकता अनुरूप सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाले। जिन्होंने अपनी शक्ति से इस विशालकाय ब्रह्मण्ड को (पृथ्वी, आकाश, पाताल) को मात्र तीन डगों में ही नाप दिया अर्थात् व्याप्त कर दिया।

टिप्पणी - गिरिक्षितेः = गिरि + क्षि + तुक् (त्) + क्विप् (चतुर्थी एकवचन)। उरुगाय = उरु + गा + युक् (य्) + अण् (अ) (चतुर्थी एकवचन।) शूषम् = शक्तिमान्। वृष्णै = वृष् + कनिन् (अन्) (चतुर्थी एकवचन )। मन्म = मन् + मनिन् (मन्), नपुंसक प्रथमा विभक्ति एकवचन)। एतु ई. लोट् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन। प्रयतम् प्र + यम् क्त (त) सहस्थम् = सह + स्था + क (आ) का लोप, सह के 'ह' को 'ध'। विममे = वि + मा विमा लिट् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन।

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यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्यक्षीयमाणा स्वधया मदन्ति। य उ त्रिधातु पृथिवीमु॒त द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के ( १ / १५४) अर्थात् प्रथम मण्डल के १५४ वें सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि दीर्घतमा, देवता, विष्णु तथा छन्द त्रिष्टुप हैं।

प्रसंग - उक्त मंत्र में विष्णु द्वारा प्रदत्त अमृतत्व भोग्य सामग्री से सम्पन्नता तथा बैकुण्ठ वासी की दिव्य भोगों से पूर्णतः संतप्ता का वर्णन किया गया है।

हिन्दी अनुवाद - जिस विष्णु के अमृत से भरे. हुए, क्षीण न होने वाले तीन लोक भोगने योग्य सामग्री से प्रसन्न होते हैं और जो अकेला ही तीन प्रकार से पृथ्वी, द्युलोक तथा सम्पूर्ण लोकों को धारण करता है।

व्याख्या - विष्णु लोक तथा बैकुण्ठ लोक जहाँ अमृतत्व (मधु) सदैव विद्यमान है यह अमृतत्व भोग्य सामग्री से सदैव सम्पन्न है अतः वहाँ के सभी निवासी उन दिव्य भोगों से पूर्णतः संतृप्त रहते हैं तथा असीम आनन्दानुभूति प्राप्त करते हैं।

टिप्पणी - पूर्णा = भरा हुआ, नपुंसक लिङ्ग, प्रथमा विभक्ति एकवचन। अक्षीयमाणा = क्षि + यक् (य्) + मुक् (म्) + शानच् (आन्), नपुंसक लिङ्ग प्रथमा विभक्ति, बहुवचन, न क्षीयमाणा इति अक्षीयमाणा (नज् तत्पुरुष)। जी = जि, नपुंसक लिङ्ग, प्रथमा विभक्ति, बहुवचन। मदन्ति = मद् धातु से लट् लकार, प्रथम पुरुष, बहुवचन। जिधातु = 'निधा' का वैदिक रूप प्रयोग। द्याम = द्यो, द्वितीया, एकवचन। विश्वा = नपुंसक लिङ्ग, द्वितीया विभक्ति, बहुवचन। दाधार = ध् + लट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।

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तदस्य प्रियमभि पाथो अश्यां नरो यत्र देवयवो मदन्ति। उरुक्मस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥

सन्दर्भ - क्षि + यक् उपर्युक्त मंत्र ऋग्वेद के ( १/१५४) अर्थात् प्रथम मण्डल के १५४ वें सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि दीर्घतमा, देवता, विष्णु तथा छन्द त्रिष्टुप हैं।

प्रसंग - उक्त मंत्र में बताया गया है कि विष्णु भक्ति वैष्णवों की अभिलाषा अर्थात् बैकुण्ठ धाम प्राप्त करने का लक्ष्य विष्णु के गुणगान द्वारा ही सम्भव है।

हिन्दी अनुवाद - (मैं) इस विष्णु के उस प्रिय रमणीक लोक (पद) को प्राप्त करूँ जिसमें देव (विष्णु) को अपना बनाने की इच्छा वाले भक्तजन आनन्द से मतवाले होकर आनन्दित होते हैं। विष्णु के परमपद में अमृत का स्रोत है, वह अद्वितीय पराक्रम से पूर्ण (विष्णु) का इतना आश्चर्यजनक बन्धु अथवा भक्तों को आकृष्ट करने का एक साधन है।

व्याख्या - विष्णु के उस परम प्रिय बैकुण्ठ धाम को या उस परम पद को प्राप्त करने के लिए भक्तजन विष्णु भक्ति में लीन होकर अपने तन-मन को आह्लादित करते हैं। विष्णुलोक (बैकुण्ठ धाम ) में स्थित मधुमय उत्स (अमृत का स्रोत) विष्णु का ऐसा आस्वाद्य पदार्थ है जो वहाँ सदैव ही उपलब्ध है जिससे विष्णु भक्त सदैव आकृष्ट बने रहते हैं। उनकी रुचि अपने आप ही उस अमृत तत्व के आस्वादन के लिए प्रवर्द्धित रहती है तथा कभी भी उससे विरत नहीं होते।

टिप्पणी - अश्याम् = आशीर्लिङ्ग, उत्तम पुरुष एकवचन। देवयवः = देव + क्यच् (य) + उ, प्रथम पुरुष, बहुवचन। मदन्ति = मंद्, लट् लकार, प्रथम पुरुष, बहुवचन। मध्वः = मधु, नपुंसक लिङ्ग, षष्ठी, एकवचन। इत्था = इदम् + थल (था) इदम् को इत् आदेश। सायण = 'स हि बन्धुरित्था' की व्याख्या भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। महाभाग ने 'बन्धुः' पद का अर्थ विष्णु ही ग्रहण किया है। पीटर्सन महोदय ने बन्धुः का अर्थ 'साहचर्य' बताया है। मैक्डॉनल ने 'बन्धु' की व्याख्या उत्सः से ग्रहण की है।

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तवां वास्तून्युश्मसि गमध्यै, यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि ॥

सन्दर्भ - उपर्युक्त मंत्र ऋग्वेद के (१/१५४) अर्थात् प्रथम मण्डल के १५४ वें सूक्त से अवतरितं हैं। इसके ऋषि दीर्घतमा, देवता, विष्णु तथा छन्द त्रिष्टुप हैं॥

प्रसंग - विष्णु भक्ति की अवतारणा का बीज इन्हीं विष्णु सूक्तों से विकसित होकर पौराणिक वैष्णव सम्प्रदाय के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इसलिए इन विष्णु सूक्तों का महत्व और अधिक बढ़ गया है। उक्त मंत्र में भी विष्णु भक्ति के बीज का प्रस्फुटन स्पष्ट दिखाई देता है।

हिन्दी अनुवाद - (हे इन्द्र और विष्णु, हम ) तुम दोनों के ही उन लोकों को जाना चाहते हैं जहाँ अनेक सींगो वाली गतिशील गाएँ (किरणें ) हैं। यहाँ ही वास्तव में प्रसिद्ध पराक्रम वाले एवं मनोरथों की वर्षा करने वाले का वह अत्यधिक परम पद (उत्तम लोक) बहुत अधिक प्रकाशित है।

व्याख्या - विष्णु लोक (बैकुण्ठ लोक) को प्राप्त करने का लक्ष्य प्रत्येक विष्णु भक्त का है। यहाँ पर भक्त अनन्य उपासना के बाद प्राप्त होने वाला इन्द्र और विष्णु के दुर्लभ धामों को पाना चाहते हैं। धन, वैभव और ज्ञान की वर्षा करने वाली कामधेनु जैसी दुर्लभ गाएँ जहाँ हैं। ऐसी विष्णु भक्ति से ओत-प्रोत भक्तजन सभी की मनोकामनाओं को पूरा करने वाले विष्णु के उस परमपद को जाने की इच्छा अभिव्यक्त कर रहे हैं।

टिप्पणी - वाम् = युवयोः के स्थान पर प्रयुक्त किए जाने वाला शब्द ता = तत्, नपुंसक लिङ्ग, द्वितीया विभक्ति, बहुवचन। अयासः = ई + अच् (अ) = अय, प्रथमा विभक्ति, बहुवचन। भाति = लट् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन।

(३) पुरुष सूक्त

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वाऽत्यतिष्ठद्द शाङ्गुलम् ॥१॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र ऋग्वेद के (१०/९०) पुरुष सूक्त से अवतरित किया गया है। अपवाद स्वरूप कृष्ण यजुर्वेद को छोड़कर प्रायः सभी संहिताओं में 'पुरुष सूक्त किञ्चित् परिवर्तन के साथ उपलब्ध होता है। इसके ऋषि नारायणे, देवता 'पुरुष' तथा छन्द अनुष्टुप् है ॥१॥

प्रसंग - पुरुष सूक्त के इस सुप्रसिद्ध मंत्र में ईश्वर की सर्व व्यापकता एवं उसके द्वारा समस्त ब्रह्माण्ड को आवृत किये जाने, आच्छादित किये जाने के भाव का अत्यन्त सुन्दर आलंकारिक वर्णन किया गया है ॥१॥

हिन्दी अनुवाद - वह परम पुरुष हजारों सिर, हजारों आंखों तथा हजारों पैर वाला है, वह इस भूमि को, ब्रह्माण्ड को सब ओर से आच्छादित करके दश अङ्गुल के आकार वाले हृदय में अथवा दशाङ्गुल ब्रह्माण्ड के अन्दर तथा उसके बाहर भी स्थित है।

व्याख्या - उस परमेश्वर में ही समस्त जगत् के प्राणियों के असंख्य सिर, आंख और पैर स्थित हैं, इसलिए भी उसे सहस्र शीर्षा, सहस्रक्ष एवं सहस्रपात् कहते हैं। दशाङ्गुल शब्द का अर्थ ब्रह्माण्ड अथवा शरीर होता है। अङ्गुलि शब्द अङ्ग अथवा शरीर के अवयवों का वाची है। पाँच स्थूल भूत तथ पाँच सूक्ष्म ये मिलकर जगत् के दश अवयव अथवा अङ्ग होते हैं। अतः ब्रह्माण्ड को दशाङ्गुल कहा जाता है। इसी प्रकार पाँच प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार एवं जीवात्मा ये मिलकर शरीर के दश अवयव हुए जिसके कारण शरीर भी दशाङ्गुल कहलाता है। इस प्रकार वह परम पुरुष इस शरीर एवं ब्रह्माण्ड के अन्दर तथा बाहर भी स्थित है॥ १॥

टिप्पणी - सहस्रशीर्षा, सहस्राक्ष तथा सहस्रपात् इन समस्त पदों में प्रयुक्त सहस्रपद असंख्य का वाचक है। ऐसा प्रायः सभी भारतीय एवं पाश्चात्य समालोचकों ने स्वीकार किया है। आचार्य सायण इस विषय के सम्बन्ध में लिखते हैं- 'सर्व प्राणि समष्टि रूपो ब्रह्माण्डदेहो, विराडाख्यो यः पुरुषः सोऽयं सहस्रशीर्षा। सहस्त्र शब्द स्योपलक्षणत्वा दनन्तैः शिरोभिर्युक्त इत्यर्थः। यानि सर्व प्राणिनां शिरासि तानि सर्वाणि तद्देहान्तः - पातितत्वात्तदीयान्येवेति सहस्रशीर्षत्वम् एवं सहसाक्षित्वं सहस्रपादत्वं च। परन्तु आचार्य सायण अथर्ववेद (१९/६/१ ) के भाष्य में निम्नलिखित भिन्न व्याख्यान प्रस्तुत करते हैं- पुरुषसंज्ञापेक्षितावरण स्थानीयोदेहविशेषो यज्ञानुष्ठातुर्नारायण पुरुषस्य रूप्यते। यथा परोक्ष स्याग्नेः प्रत्यक्षैरग्निभिः स्तवः परोक्षस्यादिपुरुषस्य लौकिकैः सहस्रबाहुत्वं बह्वक्षिपादत्वं च उच्यते।' दशाङ्गुलम् आचार्य सायण इसकी व्याख्या 'दशाङ्गुल दशाङ्गुलपरिमितं देशमत्यतिष्ठत् अतिक्रम्य व्यवस्थितः इत्यर्थः " इस प्रकार करते हैं। आचार्य उव्वट - 'दश च तानि अंगुलानि दशाङ्गुलानिन्द्रियाणि। केचिदन्यथा रोचयन्ति दशाङ्गुल प्रमाणं हृदयस्थानम्। अपरे जु नासिकाग्रं दशाङ्गुलमीति। अथर्ववेद के भाष्य में आचार्य सायण" एकेनांशेन ब्रह्माण्ड व्याप्य दशभिरंशेः कार्य प्रपञ्या संस्पृष्टः स्वप्रतिष्ठो वर्तत इत्यर्थः '।

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पुरुष एवेदं सर्व यदभूतं यच्च भव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥

सन्दर्भ - ऋग्वेद को (१०/९०) पुरुष सूक्त का यह द्वितीय मंत्र है। इसके ऋषि नारायण, देवता पुरुष तथा छन्द अनुष्टप् है॥ २॥

प्रसंग - वस्तुतः यह संपूर्ण संसार ब्रह्म का ही रूप है अर्थात् ब्रह्म ही है। परमात्मा इसके कण- कण में व्याप्त एवं ओत-प्रोत है, वही प्रकृति एवं जीवात्मा सभी पर शासन करने वाला है। सर्वत्र स्थान एवं सर्वत्र काल में वह ईश्वर ही व्याप्त है जैसाकि उपर्युक्त मंत्र में वर्णित है ॥२॥

हिन्दी अनुवाद - यह सब जो हो गया है और जो होगा पुरुष ही है ( वह पुरुष ) अमरत्व का स्वामी है और जो अन्न के साथ इस शरीर में बढ़ता है, उन्नति करता है॥ २॥

व्याख्या - वह उस अमस्त्व का ईश्वर है, जो अन्य के साथ रहता है। तात्पर्य यह है कि वह परमात्मा उस जीवात्मा का भी स्वामी है जो अन्य अर्थात् अपने से भिन्न मरणधर्मा शरीर के साथ रहता है और शरीर के साथ ही निरन्तर बढ़ता और उन्नति करता है ॥२॥

टिप्पणी - भूतम् भू + त्त्। अमृतत्वस्य अमृतस्य भाव - अमृत् + त्वल् ( ष० ए० व० )। ईशानः ईश् + शानच्। अतिरोहति अति + रूह + लट् लकार प्र० पु० ए० व०। अमृतत्वस्य - उव्वट इसका 'अर्थ 'मोक्षस्य' करते हैं, महीधर 'देवस्य अथवा अक्षमरण धर्मस्य'। आचार्य सायण ऋग्वेद में इसका अर्थ 'देवत्वस्य' लिखते हैं। ग्रासमैन, गैल्डनर, मैकडानल, ग्रिफिथ आदि विद्वान् इसका अर्थ Immortality करते हैं। यद् अन्नेन अति रोहित' इस चरण की व्याख्या में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। ऋग्वेद में आचार्य सायण इसकी मीमांसा इस प्रकार करते हैं - यद्यस्मात् कारणादन्नेन प्राणिनां भाग्येनान्नोन निमित्तभूतेनातिरोहति स्वकीयां कारणानस्थामतिक्रम्य परिदृश्यमानां जगदवस्थां प्राप्नोति तस्मात्प्राणिनां कर्मफलभोगाय जगदवस्थास्वीकारान्नेदं तस्य वस्तुत्वमित्यर्थः " वेंकटमाधव इस चरण का व्याख्यान इस प्रकार करते हैं - " यत् किंचिदिहभूतजातम् अन्नेन अतिवर्धति इति। देवानामन्नं हविः। उव्वट इस प्रकार लिखते हैं "यदन्नेन अमृतेन अतिरोहति अतिरोधं करोति। सर्वस्येश्वर इति " महीधर इस प्रकार लिखते हैं " यदु स्मात् अन्नेन प्राणिनां भोग्येन अन्नेन फलेन निमित्तभूतेन अतिरोहति स्वीयां कारणावस्थामतिक्रम्य परिदृश्यमानां जगदवस्थां प्राप्नोति तस्मात् पुरुष एवं प्राणिनां कर्मफलभोगाय जगदवस्थास्वीकारात् नेदं तस्य वस्तुत्वमित्यर्थः।

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एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र ऋग्वेद (१०/९०) पुरुष सूक्त से सम्मिलित किया गया है। जिसके ऋषि "नारायण" देवता पुरुष तथा छन्द अनुष्टप् है ॥३॥

प्रसंग - समक्त विश्व ब्रह्म की महिमा से ओत-प्रोत है वह कण-कण में व्याप्त है उसकी ही कृपा संपूर्ण सृष्टि का आविर्भाव और पराभव होता है। इसी प्रकार का भाव इस मंत्र में निहित है॥ ३।

हिन्दी अनुवाद - इतना इस पुरुष का ऐश्वर्य है वह पुरुष इससे भी बड़ा है। समस्त सृष्टि उसका चतुर्थांश है। इसका तीन चौथाई अमृत रूप से द्युलोक में अवस्थित है ॥३॥

व्याख्या - इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड में उसकी महिमा है तथा विश्व में मात्र उसकी महिमा का बोध होता है, वह पुरुष तो कहीं इससे अधिक महान् और श्रेष्ठ है। समस्त चराचर जगत् केवल उसका एक पाद है, एक अंश है और उसके तीन पाद द्युलोक में अपने स्वरूप में स्थित हैं। उस महान् पुरुष अंश से उत्पन्न होने वाली यह सृष्टि सदा परिवर्तित होती रहती है, किन्तु उनके तीन पाद अर्थात् वह पूर्ण पुरुष अपने में सदा अविकारी, अपरिवर्तनशील एवं ध्रुव होकर रहता है। वस्तुतः सृष्टि रूपी अंश निकालने के बाद भी परमात्मा सदा पूर्ण ही रहता है ॥३॥

टिप्पणी - एतावान् एतद् + मतुप् यहाँ 'आ सर्वनाम्नः' से आत्व होता है। महिमा महत् + इमनिच्। ज्यायान - अयमनयोरतिअयमनयोरति शयेन प्रशस्यः। इस अर्थ में 'द्विवचन विभज्योपपदौ तरबीयसुनौ से ईयसुन् प्रत्यय 'ज्य च' से प्रशस्य को ज्यादेश, ईयसुन के 'ई' को आत्व' विश्वा - विश्वानि का वैदिक रूप। त्रिपाद त्रयाणां पादानां समाहारः - यहाँ 'पादेस्य लोपोऽहत्यादिभ्यः से अन्त्य 'अ' का लोप होता है।

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त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः। ततो विष्वत्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥४॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के (१०/९०) पुरुष सूक्त से अवतरित है इसके ऋषि नारायण, देवता पुरुष तथा छन्द अनुष्टुप् है ॥४॥

प्रसंग - प्रत्यय के पश्चात् केवल एकमात्र परमात्मा ही अवशिष्ट रह जाता है अर्थात् वह ही उच्च स्थान में स्थित रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सृष्टि की उत्पत्ति ब्रह्म के एक पाद से होता है। (एक अंश से होती है) शेष उसके तीन पाद अपने मूल स्वरूप में उच्च स्थान में अवशिष्ट रहते हैं निम्न स्पष्ट है।

हिन्दी अनुवाद - तीन पादों से युक्त पुरुष ऊपर को उठ गया, फिर भी इसका चतुर्थांश यहीं रह गया। उस (पुरुष) ने भोजन करने वाले (चेतन) तथा न करने वाले (अचेतन) सभी को विविध रूपों से प्राप्त कर लिया ॥ ४।

व्याख्या - त्रिपाद पुरुष ऊर्ध्व स्थान में उदित हुआ है तथा उसका एक पाद सृष्टि के रूप में पुनः पुनः उत्पन्न होता रहता है। यही कारण है कि ब्रह्म को उच्छिष्ट (उत् + शिष्ट) भी कहा जाता है। ब्रह्म के अतिरिक्त जीवात्मा या प्रकृत अथवा अन्य किसी को उच्छिष्ट नहीं कहा गया है। अतएव प्रलयकाल में जीवात्माओं अथवा प्रकृति की कोई सत्ता नहीं रहती सब उसी में निहित हो जाते हैं।

टिप्पणी - उदैत् उत् + इण् + लङ् लकार प्र० पु० ए० व०। अभवत् भू धातु लङ् लकार प्र० पु० ए० प०। साशनानशने - अशनम् अश् + ल्युट् = अशन। अशनेन सहितं साशनम् अशनैन रहितं अनशनम्। साशनम् अनेशनं चेति (द्वन्द्व) विष्वङ् - वषु सर्वत्र अञ्यति इति विषु + अञ्च + क्विप्। अक्रामत् । क्रम धातु लङ् लकार प्र० पु० ए० व०।

इस मंत्र के प्रथम चरण पर आचार्य सायण की मीमांसा देखें- "योऽयं त्रिपात्पुरुषः संसाररहितो ब्रह्म स्वरूपः सोऽयममूर्ध्वम् उदैत्। अस्मादज्ञानकार्यात्संसारा व बहिर्भूतः अत्रत्यैर्गुण दोषैरस्पृष्ट उत्कर्षेण स्थितवान्।' त्रिपात् पुरुषः की व्याख्या महीधर 'संसार स्पर्शरहित ब्रह्मरूप' करते हैं तथा उत्वट 'कस्मात् कारणात्' सायण 'मायायामागत्य अन्तरम्' पीटर्सन Then गैल्डनर, ग्रिफिथ तथा मैकडानल There विष्वङ् - वेंकटमाधव नानांचनः।

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तस्माद विराडजायत विराजो अधि पूरुषः। स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथोपुरः ॥५॥

सन्दर्भ - जगत् की उत्पत्ति विषयक यह मंत्र ऋग्वेद के (१०/९०) पुरुष सूक्ति से उद्धृत किया गया है। इसके देवता पुरुष, ऋषि नारायण एवं छन्द अनुष्टुप् है ॥५॥

प्रसंग - प्रस्तुत मन्त्र में पुरुष ने किस रूप में जन्म लिया तथा किस प्रकार वह सर्वत्र व्याप्त हो गया, वर्णित किया गया है ॥५॥

हिन्दी अनुवाद - उस (आदि पुरुष ) से विराट् उत्पन्न हुआ। ब्रह्माण्ड, शरीर या व्यक्त जगत् विराट् से ही (जीवात्मा के रूप में) पुरुष उत्पन्न हुआ। वह उत्पन्न होते ही जगत् के आगे तथा पीछे की भूमि से अतिक्रमण कर गया ॥५॥

व्याख्या - भगवान् (पुरुष) ने स्वयं अपने को ही विराट् रूप में उत्पन्न किया। उत्पन्न होते ही विविध रूपों में सर्वत्र व्याप्त हो गया अर्थात् वही ब्रह्माण्ड (व्यक्त जगत्) है वही जीवात्मा है तथा वही पशु- पक्षी मनुष्य आदि के रूप में चेतनता को प्राप्त कर अन्य जगत् से बढ़ गया। उसी ने पृथिवी का निर्माण कर शरीर का निर्माण किया ॥६॥

टिप्पणी - विराट् विशेषेण राजते इति वि + राज् + क्विप्। अजायतजन् धातुलङ् लकार प्र० पु० ब० व०। जातः जन + क्तु। अत्यरिच्यत अति + रिच् + लङ् लकार प्र० पु० ए० व०। पुरः पूर्यन्ते सप्तभिः धातुभिः पुरः +क्विप् द्वि० ब० व०।

विराट् - वेंकटमाधव " विराट् नाम पुरुषः अजायत ब्रह्मभूतः।" महीधर विराट् ब्रह्माण्डऽदेहोऽजायत जातः। विविध राजन्ते वस्तून्यत्रेति विराट्। अथर्ववेद में आचार्य सायण इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं- 'अग्रे सृष्ट्यादौ विराट् विविधं राजन्ति वस्तूनि यस्मिन्निति स विराट्नाम पुरुषः समभक्तः। विराट् को वृष्टि, अग्नि, पृथिवी, वाणी तथा अन्न भी कहा गया है। गैल्डनर विराट् को सृष्टि उत्पत्ति का नारीत्व भी मानते हैं। मैकडानल इस प्रकार लिखते हैं।

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यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥६॥

सन्दर्भ - यह दिव्य मन्त्र ऋग्वेद के (१०/९०) पुरुष सूक्त से प्रस्तुत हैं। इसके ऋषि नारायण देवता पुरुष तथा छन्द अनुष्टुप् है ॥६॥

प्रसंग - प्रस्तुत मन्त्र में देवताओं द्वारा किया गया मानसिक यज्ञ वर्णित है ॥६॥

हिन्दी अनुवाद - जब देवताओं ने पुरुष रूपी हवि के द्वारा यज्ञ किया उस समय बसन्त ऋतु इस यज्ञ का घृत, ग्रीष्म ऋतु ईंधन तथा शरद् ऋतु हवि थी ॥६॥

व्याख्या - प्रस्तुत मंत्र में वसन्त, ग्रीष्म तथा शरद् ऋतुओं को उत्पन्न हुए पुरुष के अवयव मानकर यज्ञ सामग्री के रूप में प्रस्तुत किया है। वस्तुतः देवताओं के द्वारा किये गये इस मानसिक यज्ञ में बसन्त, ग्रीष्म और शरद् को सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण का रूपक माना गया है। इन तीन गुणों के द्वारा ही सृष्टि की रचना हुई है ॥ ७६ ॥

टिप्पणी - यत् - यह 'यदा' का रूपान्तर है। यज्ञम् यज् + नङ्। अतन्वत - 'तनु विस्तारे' धातु लङ् लकार प्र० पु० ए० व०। आज्यम् अञ्जु धातु से ऋहलोर्व्यत् से ण्यत् प्रत्यय। इध्मः - इन्ध् धातु से निपातनात् बनता है। उव्वंट ने बसन्त, शरद् और ग्रीष्म की सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण से व्यञ्जना की है। यह मंत्र ऋग्वेद में छठे स्थान पर तथा यजुर्वेद में चौदहवें स्थान पर है ॥६॥

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तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुष जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ७ ॥

सन्दर्भ - सुप्रसिद्ध यह मंत्र ऋग्वेद के ( १०/९०) पुरुष सूक्त से लिया गया है, इसके ऋषि नारायण, देवता पुरुष तथा छन्द अनुष्टुप् है।

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में यज्ञ के पूर्व की व्यवस्था फिर यज्ञ करने का वर्णन है।

हिन्दी अनुवाद - सर्वप्रथम उत्पन्न यज्ञ के साधन पुरुष को कुश पर ( रखकर ) जल छिड़ककर (पवित्र किया)। उससे देवताओं ने तथा ऋषियों ने यज्ञ किया ॥ ७ ॥

व्याख्या - यह मंत्र भी देवताओं के द्वारा किया गया मानसिक यज्ञ है। इसमें यज्ञ के साधन भूत पुरुष को माना गया है। उसके ही द्वारा समस्त कार्यों की सिद्धि मानी गयी है। देवता तथा ऋषि पहले उस प्रभु का ही आह्वान करते हैं तत्पश्चात् यज्ञ क्रिया को संपन्न करते हैं ॥ ७ ॥

टिप्पणी - प्रौक्षन् प्र + उक्ष (सेचने) लङ् लकार प्र० पु० ब० व०। जातम् जन् + क्त्। देवाः दिव् + अच् (प्र० ब० व०) अयजन्त यज् धातु लङ् लकार प्र० पु० ब० प०। साध्याः साथ + ण्यत्यज्ञं महीधर - "यज्ञसाधनभूतं" तथा सायण भी यही लिखते हैं।

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तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम्। पशूंस्ताँश्चक्रे वायव्यानाराण्यान् ग्राम्याश्चये ॥ ८ ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के (१०/९०) पुरुष सूक्त से सम्मिलित किया गया है इसके ऋषि 'नारायण', देवता 'पुरुष तथा छन्द अनुष्टुप् है ॥ ८ ॥

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में अग्नि में हुत किये गये पुरुष के द्वारा सृष्टि विकास प्रक्रिया का वर्णन है।

हिन्दी अनुवाद - उस सर्वहुत यज्ञ से दधिमिश्रित घृत प्राप्त किया गया, उसने वायु या अन्तरिक्ष में विचरण करने वाले जंगलों में रहने वाले और ग्रामों में रहने वाले पशुओं को उत्पन्न किया ॥ ८ ॥

व्याख्या - उस विराट् पुरुष ने सृष्टि विकास हेतु स्वयं को हुत कर दिया। उस सर्वहुत यज्ञ से दूध, दही, धृत तथा समस्त प्रकार के पशु (वायु में विचरण करने वाले, जंगलों में रहने वाले तथा गांवों में रहने वाले) उत्पन्न हुए ॥ ८ ॥

टिप्पणी - सर्वहुतः - सर्व + हु + क्विप् (तुगागम) पं० ए० व०। सर्वात्मकः ( पुरुषः) हूयते यस्मिन् सः = सर्वहुतः। संभृतम् सम् + भृ त्त्। पृषदाज्यम् पृषत् च आज्यं च तयोः समाहारः ( समाहार द्वन्द्वः ) वायव्यान् वायु + यत् वायव्य (द्वि ब० व० )।

आरण्यान् - अरण्य + ण ( द्वि० ब० व० ) ( ग्राम्याः - ग्राम + यत् = ग्राम + यत् = ( प्र० ब० व० )। चक्रे - कृ + लिट् (आत्मनेपद) उ० पु० ए० व०।

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तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ९ ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र ऋग्वेद के (१०/९०) पुरुष सूक्त से उद्धृत किया गया है। इसके ऋषि 'नारायण' देवता पुरुष तथा छन्द अनुष्टुप् है ॥ ९ ॥

प्रसंग - यह मंत्र भी सृष्टि विकास प्रक्रिया से ही संबंधित है। इसमें वेदों की उत्पत्ति का वर्णन नहीं है ॥६॥

हिन्दी अनुवाद - उस सर्वहुत यज्ञ से ऋचाएँ (ऋग्वेद), साम (सामवेद) उत्पन्न हुए उससे गायत्री आदि छन्द उत्पन्न हुए और उससे यजुष् उत्पन्न हुआ ॥ ९ ॥

व्याख्या - प्रस्तुत मंत्र में स्पष्ट किया गया है कि सभी आहुतियाँ जिसके लिए दी जाती हैं, उस सर्वपूज्य, सर्वोपास्य, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ परब्रह्म से ही ऋग्वेद तथा सामवेद उत्पन्न हुए। उससे (छन्दांसि ) अथर्ववेद उत्पन्न हुआ तथा उसी से यजुर्वेद उत्पन्न हुआ ॥ ९ ॥

टिप्पणी - ऋचः - ऋच्यन्ते स्तूयन्ते देवा अनया इति ऋक् स्तुतौ' धातु से क्विप् प्रत्यय (प्र० ब० व०) सामिनि - स्याति पापमिति इस अर्थ में 'षोऽन्तकर्मणि' धातु से मनिन् प्रत्यय (प्र० ब० व० )। जज्ञिरे 'जन्' धातु लिट् लकार प्र० पु० ब० व०। यजुः - इज्येतऽनेनेति - इस अर्थ में 'उस' प्रत्यय।

अजायत - जन् धातु लङ् लकार प्र० पु० ए० व०। इस मंत्र से ज्ञात होता है कि इस सूक्त की रचना होने तक ऋक्, साम और यजुः नामक तीनों वेदों का संकलन हो चुका था। कतिपय विद्वान 'छन्दासि' पद को अथर्ववेद का सूचक मानते हैं। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि ऋक्, साम और यजुः यहाँ संख्या वाचक न होकर प्रकार वाचक है। इन पदों के द्वारा ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेद का अभिधान न होकर तीन प्रकार के मंत्र अभिहित हैं। ऋचायें और साम गायत्री आदि छन्दों में उपनिबद्ध हैं और यजुष् गद्यात्मक है ॥ ९ ॥

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तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः गावो जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः ॥ १० ॥

सन्दर्भ - सृष्टि विकास प्रक्रिया से संबंधित यह मंत्र ऋग्वेद के (१०/९०) पुरुष सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि 'नारायण' तथा देवता 'पुरुष' एवं छन्द 'अनुष्टप्' है॥ १०॥

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र सृष्टि विकास क्रम से ही संबंधित है ॥ १० ॥

हिन्दी अनुवाद - उस सर्वहुत यज्ञ से अश्व उत्पन्न हुए। दोनों ओर दांतों वाले पशु उत्पन्न हुए, उससे निश्चय ही गायें उत्पन्न हुईं। उससे (ही) बकरियाँ तथा भेड़ें उत्पन्न हुई ॥ १० ॥

व्याख्या - सृष्टि रचना क्रम में उस सर्वहुत यज्ञ से ( जिसमें सब कुछ होम कर दिया गया था) अश्व उत्पन्न हुए, जिस अश्वों के अतिरिक्त दोनों ओर दांतों वाले गधे, खच्चर आदि उत्पन्न हुए। उसी से दूध देने वाले गायें, बकरियाँ तथा भेड़ें आदि पशु उत्पन्न हुए ॥ १०॥

टिप्पणी - अजायन्त जन् धातु ल० लकार प्र० पु० ब० व०। उभयादत : उभयतः दन्तः येषां ते दन्त को दत् आदेश तथा 'उभय' के अन्त्य 'अ' को दीर्घ। जाताः = जन् तु (प्र० ब० व० )। अजावयः अजाश्च अवयश्चेति अजावयः (द्वन्द्व समास)।

छन्द के अनुरोध से 'चोभयादतः' को च उभायादतः। पढ़ना चाहिए ॥ १० ॥

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यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखम् किमस्य किं बाहू किम् उरूपादा उच्येते ॥ ११ ॥

सन्दर्भ - यह ऋग्वेद के (१०/९०) पुरुष सूक्त का मंत्र है। इसके ऋषि 'नारायण' देवता 'पुरुष' तथा छन्द 'अनुष्टुप्' है ॥१॥

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में उस पुरुष को लक्ष्य में रखकर प्रश्नोत्तर के रूप से ब्राह्मण आदि की सृष्टि को कहने के लिए ब्रह्मवादियों के प्रश्न प्रस्तुत हैं ॥ ११ ॥

हिन्दी अनुवाद - जब (देवताओं) ने उस विराट् पुरुष को विभक्त किया। उस समय उसके कितने भाग किये? उसका मुख क्या था? उसकी दोनों भुजायें तथा दोनों जंघायें क्या थी? उसके दोनों पैर क्या कहे जाते हैं ॥ ११ ॥

व्याख्या - जब साध्य और वसु नामक देवताओं ने पुरुष यज्ञ का विधान किया तब इसको कितने प्रकार के कल्पित किया, इस यज्ञात्मा पुरुष का मुख क्या था और कौन सी वस्तु इसकी भुजा और अरू कहलाती है और क्या वस्तु पाद कहलाती है? ॥ ११ ॥

टिप्पणी - व्यदधुः वि + धा, लङ् लकार प्र० वि + क्लृप् + णिच् लङ् लकार प्र० पु० व०। उच्येते पु० ब० व०। कतिदा कति + धा। व्यकल्पयन् वच् (भावकर्मणि) लट् लकार प्र० पु० ब० व०।

व्यदधुः - महीधर 'कालेनोदपादयन्। सायण "संकल्पेनोत्पादितवन्तः। वेंकटमाधव - "यथा पुरुषं विदधुः साध्या देवाः। ग्रिफिथ पीटर्सन तथा मैक्डानल प्रथम चरण का अनुवाद इस प्रकार करते हैं -गैल्डनर

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ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहु राजन्यः कृतः। अरू तदस्य यद्वैश्यः पद्म्याँ शूद्रो अजायत ॥ १२ ॥

सन्दर्भ - सृष्टि विषयक यह मंत्र ऋग्वेद (१०/९०) पुरुष सूक्त से वर्णित है। इसके ऋषि 'नारायण', देवता 'पुरुष' तथा छन्द अनुष्टुप् है ॥ १२ ॥

प्रसंग - पूर्व में पूछे गये प्रश्न का प्रस्तुत मंत्र में उत्तर दिया गया है ॥ १२ ॥

हिन्दी अनुवाद - ब्राह्मण इस (पुरुष) का मुख था, दोनों भुजायें क्षत्रिय तथा जो वैश्य है वह जंघाओं के रूप में थे। दोनों पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए ॥ १२ ॥

व्याख्या - संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति एवं विकास कर्ता वह विराट् अर्थात् ब्रह्म ही है ब्राह्मण इस विराट् पुरुष का मुख है। चूंकि ब्राह्मण इस समाज को दिशा निर्देशित करते हैं जो वाणी के द्वारा संभव है और वाणी मुख द्वारा क्षत्रियों की उत्पत्ति भुजाओं के द्वारा है (क्षत्रिय युद्ध आदि में समाज की रक्षा करते हैं जो भुजाओं द्वारा ही हो सकती है), वैश्यों की उत्पत्ति मध्य भाग से है। समाज का भरण-पोषण उदर रूप में संकेतित किया गया है तथा पैरों से (सेवा कार्य किये जाने हेतु) शूद्र उत्पन्न हुए ॥ १२ ॥

टिप्पणी - ब्राह्मण: - ब्राह्मणोऽपत्यम् - वहाँ 'तस्यापत्यम्' से अण् प्रत्यय अथवा 'ब्राह्मणधीते। यहाँ 'तदधीते तद्वेद' से अण् अथवा ब्रह्म जानाति - वहाँ 'शेषे' से क्षण प्रत्यय। राजन्यः राज्ञोपत्यम् - इस अर्थ में 'राजश्वशुराद्यत्' से यत् प्रत्यय। कृतः कृ + क्त। वैश्य विशन्तीति 'विश' प्रवेशने। क्विप् स्वार्थेष्यञ। शूद्रः शोचतीति 'शुच शोके। धातु से श्मुचेर्दश्च। से रक् दत्व तथा दीर्घ।

ऋग्वेद के इस मंत्र में चारों वर्णों का वर्णन प्राप्त होता है। आधुनिक विद्वान् इस पुरुष सूक्ति को उत्तरकालीन बताते हैं। अवेस्ता में भी इसी प्रकार का वर्णन विभाजन मिलता है। छन्द के अनुरोध से 'राजन्यः' को 'राजनिअः' पढ़ना चाहिए ॥ १२ ॥

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चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्य्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत ॥ १३ ॥

सन्दर्भ - सृष्टि विषयक पुरुष सूक्त का यह मंत्र कृष्ण यजुर्वेद को छोड़कर प्रायः सभी संहिताओं में उपलब्ध होता है। इसके ऋषि 'नारायण' देवता 'पुरुष' तथा छन्द अनुष्टुप् है ॥ १३ ॥

प्रसंग - द्युलोक आदि तीनों लोक तथा सूर्य, चंद्र, दिशायें आदि सभी विराट् पुरुष के ही अवयव हैं। निम्न मंत्र में स्पष्ट है ॥ १३ ॥

हिन्दी अनुवाद - (इस यज्ञ पुरुष के मन से चंद्रमा, नेत्रों से सूर्य, मुख से इन्द्र और अगि उत्पन्न हुए तथा प्राण से वायु उत्पन्न हुआ॥ १३॥

व्याख्या - इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड के कण-कण में वह व्याप्त है, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र तथा अग्नि आदि सभी उसी के अङ्ग है। चंद्रमा मन, नेत्र, सूर्य इंद्र और अग्नि मुख तथा वायु प्राण हैं। समस्त ब्रह्माण्ड की संपूर्ण वस्तुएँ उसी की सामर्थ्य से स्थित हैं ॥ १३ ॥

टिप्पणी - चंद्रमाः - चन्द्रं कर्पूरं सादृश्येन माति तुलयित 'चन्द्रे मोडिच' से असुन्। चक्षोः शब्द पञ्चमी ए० व०। (वैदिक रूप )।

इस मंत्र का तृतीय तथा चतुर्थ चरण यजुर्वेद से भिन्न है। यजुर्वेद में इस प्रकार है - श्रोत्रा द्वाश्च प्राणश्च मुखादग्नि रजायता' इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मन में शान्ति नेत्रों में तेज, मुख अर्थात् वाणी में शक्ति तथा प्राणों में वायु सब उस परम पुरुष के द्वारा ही उत्पन्न किये गये हैं॥ १३ ॥

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नाभ्या आसीदन्तरिक्ष शीष्ण द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकान् अकल्पयन् ॥ १४ ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के (१०/९०) पुरुष से उद्धृत किया गया है। इसका देवता 'पुरुष' ऋषि 'नारायण' तथा छन्द अनुष्टुप् है ॥ १४ ॥

प्रसंग - इस मंत्र में वर्णित किया गया है कि समस्त लोक उसी परम पुरुष के विभिन्न अंगों से उत्पन्न हुए हैं॥ १४॥

हिन्दी अनुवाद - इसी परमेश्वर की नाभि अथवा अवकाश स्वरूप मध्यम सामर्थ्य से अन्तरिक्ष लोकों के बीच का आकाश हुआ। शिर अथवा शिर के तुल्य उत्तम सामर्थ्य से प्रकाश युक्त द्युलोक हुआ। पैरों से अथवा पृथिवी के कारण स्वरूप सामर्थ्य से पृथिवी और कान अर्थात् अवकाश स्वरूप सामर्थ्य से दिशायें हुई। इसी प्रकार ईश्वर के सामर्थ्य से अन्य लोकों की उत्पत्ति की कल्पना की गयी है॥ १४॥

व्याख्या - प्रस्तुत मंत्र में काल्पनिक आलंकारिक वर्णन करते हुए कहा गया है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड उस निराकार ब्रह्म का ही रूप है और इसमें कार्य करने वाले विविध शक्तिशाली देव-ब्रह्म के विराट रूप के विभिन्न अवयवों के समान हैं अर्थात् उसी के जीवित, जाग्रत, शाश्वत अविनाशी अंश हैं ॥ १४ ॥

टिप्पणी - नाभ्या - नाभि शब्द पं० ए० व०। अन्तरिक्षम् द्यावा पृथिव्योरन्तरीक्ष्यते ईक्ष दर्शने कर्मणि घञ छन्दस ह्रस्व। शीर्ष्णः शिरस् को वैदिक शीर्षन् आदेश (पं० ए० व०) दिशः दिशत्यवकाशमिति - 'दिश अतिसर्जने' धातु से क्विन् प्रत्यय। 'लोर्का अकल्पयन' वैदिक सन्धि के अनुसार न् '' हो जाता है। लोक शब्द का अर्थ विद्वानों ने खुला स्थान 'Open Space' किया है। ऋग्वेद में लोक शब्द के पूर्व उ पद का प्रायः प्रयोग हुआ है, परन्तु इस मंत्र में ऐसा नहीं हुआ है। छन्द के अनुरोध से 'द्यौः' को 'दिऔः' के रूप में पढ़ना चाहिए ॥ १४ ॥

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सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५ ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र ऋग्वेद (१०/९०) पुरुष सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि 'नारायण', देवता पुरुष' तथा छन्द अनुष्टुप् है॥ १५॥

प्रसंग - उपर्युक्त मंत्र में वर्णित किया गया है कि जब सृष्टि हेतु देवताओं ने यज्ञ किया तो पुरुष रूपी परमेश्वर को पशु रूपी विचारों से बांधा, जिससे वह देवताओं के अनुसार क्रियायें सम्पादित करें ॥ १५ ॥

हिन्दी अनुवाद - जब यज्ञ का अनुष्ठान करते हुए देवताओं ने पुरुष रूपी पशु को बांधा, ( उस समय) मानसिक यज्ञ की सात परिधियाँ थी और इक्कीस समिधायें बनाई गई थी॥ १५॥

व्याख्या - जिस समय देवताओं ने (अश्व मेघ) व पुरुषमेध यज्ञ को किया, उस समय अपने यज्ञ में पुरुष पशु को यूप में बांधा उसी समय गायत्री आदि सात छन्दों को परिधि बनाया और इक्कीस समिधायें बनायी।

टिप्पणी - परिधयः परि + धा+कि= (प्र० ब० व०) समिधः सम् + इन्ध् + क्विप् (प्र० ब० व० )। कृताः कृ + त्कत् + टाप् = (प्र० ब० व० )। तन्वानाः - तनु + उ + शानच् = (प्र० ब० व० )। अवध्नन् = बन्ध धातु लङ्लकार प्र० पु० ष० व०।

सप्त परिधयः - वेंकटमाधव सप्त छन्दांसि परिधयः आसन्। यज्ञ को वेदी के चारों ओर चढ़ने और उतरने के लिए जो सीढ़ियाँ बनाई जाती हैं। उन्हें 'परिधि कहते हैं और वे सामान्यतः तीन होती है, परन्तु इस मंत्र में सात परिधियों का उल्लेख हुआ है। इसीलिए आचार्यों ने तरह-तरह की मीमांसायें की हैं। त्रिः सप्त समिषः वेंकट 'एकविंशति संख्यायुक्ताः समिधः। उव्वट 'त्रिः सप्त छन्दांसि गाययादीनि समिधः कृताः। आत्मयागे म-------- त्रिः सप्त समिधः। पञ्चमहाभूतानि पृथिव्यादीनि। पञ्चतन्मात्राणि रूपादिनि, पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि। पञ्चकर्मेन्द्रियाणि पाण्यादीनि मनश्च एताः त्रिः सप्त समिधः कल्पमयन्ति' प्रस्तुत मन्त्र में प्रयुक्त 'पशुः' पद का अर्थ जानवर नहीं है। 'पश्यति इति पशुः इस व्युत्पत्ति के अनुसार पशु शब्द का अर्थ सर्व दृष्टा उस परमेश्वर को अपने विचारों से बांधा ॥ १५ ॥

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यज्ञेन यज्ञमय जन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। तेहनाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६ ॥

सन्दर्भ - ऋग्वेद पुरुष सूक्त का यह अन्तिम मंत्र हैं, इसके ऋषि नारायण, देवता 'पुरुष' तथा छन्द त्रिष्टुप् है॥ १६॥

प्रसंग - सृष्टि हेतु जिन देवताओं ने यज्ञ किया था वे किस स्वरूप और किस स्थान को प्राप्त हुए इसका वर्णन हुआ है ॥ १६ ॥

हिन्दी अनुवाद - देवताओं ने यज्ञ के द्वारा यज्ञ स्वरूप (प्रजापति) का यजन किया। वे धर्म सबसे मुख्य हुए। वे महिमाशाली (उपासक) दिव्य स्वर्ग को प्राप्त करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्य देव हैं।

व्याख्या - देवों ने (विद्वानों ने) यज्ञ से उस पूज्यनीय परमात्मा की पूजा की। विविध प्रकार की पूजा के वे यज्ञ सर्वश्रेष्ठ धर्म अर्थात् प्रमुख धार्मिक कार्य थे। निश्चय ही यज्ञ करने वाले वे विद्वान महिमा से मुक्त होकर स्वर्ग अथवा आनन्द के उस परम धाम को प्राप्त होते हैं, जहाँ यज्ञ रूपी धार्मिक साध्यों को संपन्न करने वाले पूर्वकालीन विद्वान् रहते हैं ॥ १६ ॥

टिप्पणी - अयजन्त यज् धातु लङ् लकार प्र० पु० ब० प०। धर्माणि धृ + मनिन् प्र० पु० ष० व०) महिमानः महत् + इमनिच (प्र० पु० ब० व०) सचन्त षच् ( सच्) धातु लङ् लकार (प्र० पु० ब० व०) वैदिक रूप, अकार लोप वर्तमान के अर्थ में लङ् लकार का प्रयोग। साध्याः साधु +व्यत् (प्र० ब० व० )। ते महिमानः उव्वट 'ते ह महाभाग्य युक्ताः ॥

(४) हिरण्य सूक्त

१.

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। सदाधार पृथ्वीं द्यामुतेमां। कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥१॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के प्रसिद्ध दार्शनिक सूक्त हिरण्यगर्भ (प्रजाति) सूक्त का प्रथम मंत्र है। इस सूक्त में कुल दस मंत्र हैं जिनमें से अन्तिम मंत्र को छोड़कर शेष सभी मंत्रों के अन्त में "कस्मै देवाय हविषा विधेम चरण आया है। इसके देवता 'क' प्रजापति, ऋषि प्रजापति पुत्र 'हिरण्यगर्भ' तथा 'त्रिष्टुप छन्द है ॥ १।

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में सृष्टि के आदि की स्थिति का वर्णन किया गया है अर्थात् सृष्टि की रचना का मूल क्या है कौन सर्वप्रथम प्रकट हुआ और फिर क्रमशः सम्पूर्ण जगत् का निर्माण हुआ।

हिन्दी अनुवाद - हिरण्यगर्भ रूप (प्रजापति) सर्वप्रथम प्रकट हुआ। उत्पन्न होते ही वह सम्पूर्ण प्राणियों का अद्वितीय स्वामी हो गया। उसने पृथ्वी और द्युलोक को धारण किया। हम हवि के द्वारा ऐसे किस देव की उपासना करें॥ १॥

व्याख्या - सूर्य, चन्द्र आदि प्रकाश मान पदार्थों को उत्पन्न करके धारण करने वाला प्रकाश स्वरूप परमात्मा ही सृष्टि के पूर्व में था वही जगदुत्पत्ति के पूर्व जगत् के ज्योतिमान उपादान कारण को अपने गर्भ में रखने वाला वर्तमान था। समस्त प्राणियों का एकमात्र स्वामी, पालक एवं रक्षक था। उस ईश्वर ने ही इस पृथ्वी और द्युलोकादि को धारण कर रखा है। अर्थात् अविज्ञात स्वरूप वाले परमात्मा ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को स्वयं धारण कर रखा है। ऐसे सुख स्वरूप परमात्मा की हम अन्तःकरण से भक्तिपूर्वक उपासना करें ॥१॥

टिप्पणी - हिरण्यगर्भ - हिरण्यस्य (हिरण्मयस्य) गर्भः = हिरण्य गर्भः (षष्ठी तत्पुरुष)। समवतत सम् + वृत धातु लङ लकार प्र. पु. ए. व.। भूतस्य भू + त्क् (ष. व.) जातः जन् + त्क्। पतिः - पा + ङति। दाधार- 'धृ' लिट् लकार प्र. पु. ए. व. का वैदिक रूप। कस्मै = किम् + उ = क यहाँ क्रिया ग्रहणं कर्तव्यम् से द्वितीया के अर्थ में चतुर्थी।

विधेम - विध् + विधि लिङ् लकार उ. पु. ब. व.॥

हिरण्य गर्भ को अनेक विद्वानों ने परिभाषित किया है - "सायण के अनुसार हिरण्मयस्य अण्डस्य गार्भभूतः प्रजापति" हिरण्यगर्भः। तैत्तिरीय संहिता में "प्रजापतिर्वे हिरण्यगर्भः प्रजापतेरनुरुपत्वात्। (५.५.१.२.)

यद्वा हिरण्यमयोऽण्डोर्भवद्यस्योदरेवर्तते सो ऽ सौ सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ इति उच्यते। (सायण) आचार्य यास्क लिखते हैं "हिरण्ययस्य हिरण्यमयस्याण्डस्य गर्भः गर्भवदन्तरस्थितः ( यास्क १०, १३) वेंङ्कटमाधव - हिरण्मयस्य अण्डस्य गर्भभूतः। उव्वट हिरण्यगर्भारुयः पुरुषः। महीधर - हिरण्ये हिरण्य पुरुष रूपे ब्रह्मण्डे गर्भरूपेणावस्थितः प्रजापतिर्हिरण्यगर्भः।

ग्रासमैन Sprout of gold. मोनियर विलियम्स Golden fetus गैल्डनर Golden germ. पीटर्सन Golden seed हिव्टने Golden embryo, ग्रिफिथ के अनुसार-

“Hiranyagarhha - “Siterally the gold germ' if source of golden light, the sun god as the great power of the universe, from which all other powers and existences, divine and earthly, are derived, a conception which is nearest approach to the later mystical conception of Brahma, the creator of the world."

इस संबंध में गैल्डनर का अभिमत विचारणीय है - यह सुवर्णबीज (हिरण्यगर्भ) उत्तरकालीन सृष्टि उत्पत्ति सिद्धांत के उस हिरण्यमय अण्ड की पूर्वावस्था है जो बीज के रूप में आदि जलों से उत्पन्न हुआ।"

इसी प्रकार कस्मै शब्द की व्याख्या भी अनेक प्रकार से हुई

१. उस हिरण्यगर्भ प्रजापति को छोड़कर हम किस देव का पूजन करें। अर्थात् हम उसका ही पूजन करें।

२. 'क' अर्थात् अविज्ञात रूप प्रजापति का पूजन करते हैं। हम सुख स्वरूप प्रजापति का पूजन करते हैं। इस हिरण्यगर्भ सूक्त के द्वारा एकेश्वरवाद की स्थापना होती है॥ १॥

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3.

यः प्राणतो निमिषतो महि
त्वैक इद्राजा जगतो बभूव।
य ईशे अस्य द्वि पदश्चतुष्पदः
कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥३॥

सन्दर्भ - यह मंत्र ऋग्वेद (१०/१२१) हिरण्यगर्भ (प्रजापति) सूक्त तृतीय मंत्र है इसका ऋषि प्रजापति पुत्र हिरण्यगर्भ, देवता 'क' संज्ञक प्रजापति तथा छन्द त्रिष्टुप्' है॥ २

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में हिरण्यगर्भ का एकाधिपत्य प्रदर्शित किया है और यह स्पष्ट किया गया है कि उसने मात्र मानव अथवा देवता अथवा प्राणि समूह में से किसी एक पर ही शासन करके अपितु समस्त चर, अचर, जगत् को अपने स्वामित्व में ले लिया। ॥३॥

हिन्दी अनुवाद - जो हिरण्यगर्भ अपनी महिमा में श्वास प्रश्वास लेने वाले, पलकों का संचालन करने वाले और गतिशील प्राणि जगत् का अकेला ही राजा हो गया और जो दो पैरों वाले (मानव) तथा चार पैरों वाले (पशु) का स्वामित्व करता है (उसके अतिरिक्त) किसके लिए हवि से विधान करें। ॥३॥

व्याख्या - सम्पूर्ण सृष्टि का उत्पादक, पालक तथा नियन्ता हिरण्यगर्भ अपनी महिमा के कारण इतनी सामर्थ्य से युक्त हो गया कि किसी देश या प्रान्त का राजा न होकर सम्पूर्ण जगत् के संपूर्ण प्राणियों का राजा हो गया। अतएव हम हवि के द्वारा सुख-स्वरूप अथवा दिव्य गुणों से युक्त 'क' नामक उस हिरण्यगर्भ का पूजन करते हैं। ॥३॥

टिप्पणी - प्राणतः प्र + अन् शतृ = प्राणत् (ष ए. व.) जिमिषतः नि + मिष् + शतृ = (ष. ए. व.) महित्वा महत् + त्व = महित्व (तृ. ए. व.) वैदिक रूप। ईशे व.) द्विपदः - दौ पादौ यस्य यः - द्विपाद् (ष. ए. व.) चतुष्पदः चत्वारः व.)॥

प्राणतः का अर्थ जगाने वाले तथा निमिषतः का अर्थ सोने वाले भी किया जा सकता है। छन्द की दृष्टि से 'महित्वैकः' को 'महित्वा एकः' तथा 'ईशेअस्य' को ईशेऽस्य पढ़ना चाहिए। ॥३॥

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५.

येन द्यौउग्रा पृथ्वी न दृष्ठ्हा येन् स्वः स्तमितं येन नाकः। ये अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥५॥

सन्दर्भ - यह मंत्र ऋग्वेद (१०/१२१) हिरण्यगर्भ गर्भसूक्त से उद्धत पाँचवां मंत्र है इसके देवता 'क' संज्ञक प्रजापति, ऋषि 'हिरण्यगर्भ' तथा छन्द 'त्रिष्टुप् ' हैं। ॥५॥

प्रसंग - द्युलोक, पृथ्वी लोक तथा अन्तरिक्ष लोक तीनों लोकों का रचनाकार वह हिरण्यगर्भ की है जो उपर्युक्त मंत्र में स्पष्ट किया है। ॥५॥

हिन्दी अनुवाद - जिसने द्युलोक को शक्ति सम्पन्न किया, पृथ्वी को स्थिर किया, जिसने स्वर्गलोक और नरक लोक को स्तब्ध कर दिया। जो अन्तरिक्ष में लोकों को नापने वाला है। ऐसे दिव्य गुणों से युक्त 'क' नामक उस हिरण्यगर्भ का हम पूजन करें। ॥५॥

व्याख्या - जिस हिरण्यगर्भ ने सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की। उसी ने यह तीनों लोक भी निर्मित किए। पृथ्वी लोक एवं द्युलोक को इतनी दृढ़ता प्रदान की कि वह समस्त प्रकार का भार वहन कर सकें। उसी ने स्वर्ग लोक को ऊपर स्थित किया जिससे सम्पूर्ण सृष्टि भय युक्त होकर कर्म करने में उचित अनुचित को दृष्टि में रखकर कार्य करे तथा उसी ने सूर्य को ऊपर स्थिर किया, जो अपनी तेजस्विता से समस्त लोकों को प्रकाशित कर रहा है तो ऐसे प्रभु को छोड़कर हम किस देव की उपासना करें। ॥५॥

टिप्पणी - द्यौः द्योतन्तेऽस्यामिति द्यौः बाहुलकात् द्युतेः ङोः। उग्रा उत् + उरी (उद्यमने) + क + टाप् = उग्रा, दृढ़ा = दृह + त्कत् + टाप्। स्वः स्वर्यते स्तूयते इति स्वृः' 'स्व' शब्दोपतापयो से किच् . प्रत्यय। स्तभितम् - स्तम्भ + त्कत्। नाक कं सुखं तद्विरुद्रं अकम् = व दुःखम् नास्त्यकमन्नेति नाकः। विमानः विविन्नेधिमानं निर्माणं यस्य सः। वि + भा + ल्युट् (अन्) येन द्यौः उग्राः वेङ्कटमाधव - येन द्यौ उदगूर्णा। अव्वट तथा महीधर येन पुरुषेण द्यौः उग्रा उदगूर्णा। वृष्टिदायिनी कृता। पीटर्सन उग्राः को द्यौ का विशेषण मानकर महान् अर्थ किया है। ग्रासमैन तथा ग्रिफिथ गैल्डन आदि प्रभूति विद्वान उग्र का अर्थ शक्ति सम्पन्न करते हैं। स्वः का अर्थ सायण ने तथा महीधर ने आदित्य मंडल और पीटर्सन ने विस्तृत आकाश किया है। ग्रासमैन तथा ग्रिफिथ स्वः का अर्थ Heaven, Lights's realism और नाक: का अर्थ Vault of Heaven sky valult करते हैं। अन्तरिक्षे रजसो विमान का अर्थ वेंकटमाधव - "अन्तरिक्षे तेजसः निर्माता।" उव्वट महीधर "अंतरिक्षे नभसि रजसो जलस्य वृष्टि रूपस्य विमानः विमिमीते निर्माता।" रजसो विमानः का अर्थ ग्रासमैन “ Measurer or traverser of air space करते हैं। ग्रिफिथ “By him the regions in the mid air were measured out mid sky.” गेल्डनर "Who Penetrates space of air पीटर्सन "and measures out mid sky". छन्द के अनुसार 'स्वः' को 'सुअ:' पढ़ना चाहिए। ॥५॥

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६.

आपो ह यद बृहतीर्विश्वमाय गर्भ दधाना जनयन्तीरम्निम्। ततो देवनां समवर्ततासुरेक कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥६॥

सन्दर्भ - दार्शनिक विचारों से ये ऋग्वेद (१०/१२१) का यह सप्तम मंत्र है, जिसके देवता 'क' संज्ञक वाले प्रजापति, ऋषि प्रजापति पुत्र 'हिरण्यगर्भ' तथा छन्द 'त्रिष्टुप् है। ॥६॥

प्रसंग - समस्त देवों में सर्वश्रेष्ठ हिरण्यगर्भ ने प्राणियों के जीवन रक्षा हेतु क्रमशः समस्त वस्तुओं का निर्माण किया। इस मंत्र में उसके द्वारा रचित अति आवश्यक पंच तत्वों का वर्णन है। ॥६॥

हिन्दी अनुवाद - जिस हिरण्यगर्भ को गर्भ के रूप में धारण करते हुए अग्नि को उत्पन्न करके महान् जलों ने समस्त विश्व को व्याप्त किया था, उसके पश्चात् देवताओं का प्राणभूत वायु उत्पन्न हुआ। हम हवि के द्वारा किस देव की उपासना करें ॥५॥

व्याख्या - सृष्टि के पूर्व सम्पूर्ण जगत् जल से परिपूर्ण था। उसी ने हिरण्यगर्भ को गर्भ रूप में धारण किया तब अग्नि प्रकट हुई, अग्नि के उपलक्षण से पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, इन पाँच महाभूतों (जिसमें इस प्राणी शरीर की रचना हुई है) का ग्रहण होगा। इन पाँच महाभूतों में प्राणी शरीर में समस्त इन्द्रियों को प्राण देने वाला अर्थात् अपने-अपने कार्य को करने की स्थिति में रखने वाला वायु उत्पन्न हुआ ॥६॥

टिप्पणी - बृहतीः बृह + शतृ + ङीप् (प्रथमा ब. व.)। 'बृहत्यः' का वैदिक रूप 'बृहती:' है। आयन्। 'इण्गतौ' धातु लङ् लकार प्र. पु. ब. व.। जयन्तीः जन् + णिय् + शतृ + ङीप (प्र. ब. व.) वैदिक प्रयोग है। समवर्तत - सम् + वृत् धातु लङ् लकार प्र. पु. ए. व.॥

विश्व - वेंकटमाधव इसका अर्थ सर्वलोक' सायण 'सर्व जगत्' तथा उव्वट सर्व करते हैं। पीटर्सन The world करते हैं। वेंकटमाधव गर्भ को गर्भभूतं इमं देवम्। उव्वट तथा महीधर 'हिरण्यगर्भ लक्षणम्' सायण - 'हिरण्यमयाण्डस्य गर्भभूतं प्रजापतिम्'। गैल्डनर ग्रिफिथ इस शब्द का अर्थ 'Germ' ग्रासमैन और 'Fetus' पीटर्सन 'seed' लिखते हैं। 'देवानाम् असुरेकः' को वेंकट माधव देवानां सर्वेषाम् एवं सर्वकार्येषु प्रेरकः कश्चित् उव्वट - 'प्राणात्मकः एकः। महीधर 'असुः' प्राणरूप आत्मा लिङ्ग शरीर रूपो हिरण्यगर्भ।

सायण - 'देवादीनां सर्वेषां प्राणिनाम् असुः प्राणभूतः एकः प्रजापतिः। ग्रासमैन 'Vital Power - गैल्डनर Life Spirit', ग्रिफिथ Spirit' तथा पीटर्सन Soul। मंत्र के तृतीय चरण में दो वर्ण अधिक है। अतः कतिपय विद्वान एकः को बाद में जोड़ा गया पद बताते हैं॥ ६॥

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७.

मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथ्विया यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान। यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान् कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ७ ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र (१०/१२१) हिरण्यगर्भसूत्र का नवम् मंत्र है। जिसके ऋषि 'हिरण्यगर्भ देवता 'क' संज्ञक प्रजापति तथा छन्द 'त्रिष्टुप् ' है ॥ ७ ॥

प्रसंग - इस मंत्र में सृष्टि के निर्माता हिरण्यगर्भ से जीवन रक्षा हेतु प्रार्थना की गयी ॥ ७ ॥

हिन्दी अनुवाद - जो पृथ्वी का स्रष्टा है, जिस सत्य नियम वाले ने द्युलोक को उत्पन्न किया है और जिसने विशाल आनन्द देने वाले जलों को उत्पन्न किया है वह हमारी हिंसा न करें। हम हवि के द्वारा ऐसे किस देव की उपासना करें।

व्याख्या - जो किसी वस्तु का निर्माता होता है वह संहारक भी होता है अतएव इस मंत्र में प्रार्थना की गई है कि वह प्रजापति हमें कष्ट न दे, हमारी हिंसा न करें जिसने समस्त लोकों को उत्पन्न किया है, तथा जिसने जीवन देने वाले आनन्ददायक जलों को भी उत्पन्न किया है। ७ ॥

टिप्पणी - हिंस् धातु लुङ् लकार प्र. पु. ए. व.। 'न माङ्योगे' से मा के योग में अट का निषेध हो जाता है। जनिता जन + णिच + तृच् + इट् का आगम तथा 'जनिता मंत्रों' से णिय का लोप (प्र. ए. व.) वह वैदिक रूप है। सत्य धर्मा' सत्यं धर्मं यस्य सः (बहुब्रीहि )। चन्द्राः - 'यदि आह्लादे' धातु से रक् प्रत्यय तथा टाप्। जजॉन - णिजन्त 'जन्' धातु लिट् लकार प्र. पु. ए. व.। यहाँ 'जनीज' इत्यादि सूत्र से मित् संज्ञा हो जाने से 'मितां हृस्वं' हो जाता है। 'सत्यधर्मा का अर्थ आचार्य सायण ने जगत् को धारण करने वाले रूप सत्य धर्म वाला, उव्वट ने सत्य का धारक, महीधर सत्य को धारण करने या कराने वाला तथा 'पीटर्सन ने सच्चा और विश्वस्त किया है। चन्द्राः का अर्थ सायण ने आह्लादक, उव्वट ने काव्य, महीधर ने जगत् का कारण (आह्लादक) (जल) तथा पीटर्सन ने देदीप्यमान अर्थ किया है।

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5.

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथ्वीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के (१०/१२१) अर्थात् दसवें मण्डल के एक सौ इक्कीसवें सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि हिरण्यगर्भ, देवता (कः) प्रजापति तथा छन्द त्रिष्टुप् हैं।

प्रसंग - प्रस्तुत मंत्र में हिरण्यगर्भ परमात्मा के उस स्वरूप का वर्णन है जो सम्पूर्ण सृष्टि का आदि है, उसका स्वामी है उसको धारण करने वाला है।

हिन्दी अनुवाद - हिरण्यगर्भ नामक प्रजापति सबसे पहले वर्तमान था। उत्पन्न होते ही द्वितीय वह सम्पूर्ण जगत् का स्वामी हो गया। द्युलोक, विस्तृत अन्तरिक्ष और पृथ्वी को वह धारण किए हुए है, किस अन्य देवता की हम हवि से परिचर्या करते रहें।

व्याख्या - यह अध्यात्म और दर्शन के क्षेत्र से सम्बद्ध है। प्रजापति के विशेषण के रूप में विश्वकर्मा का प्रयोग हुआ है। पृथ्वी, स्वर्ग, जल और निःशेष प्राणियों के सृष्टा के रूप में इनकी स्तुति की गई है। यह तेजस्वरूप प्रजापति सृष्टि से पूर्व विद्यमान था। पञ्चभूतों की सृष्टि होने पर वह उनका अधिपति हो गया।

टिप्पणी - कस्मै = सृष्ट्यर्थ कामयते इति कः। प्रथम पुरुष एकवचन। जातः = जन् + क्त। दाधार =प्रजापतिः। समवर्तत = सम् + वृत्, लङ लकार, धृ ( धारणे) लिट् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन। हविषा + हु धातु, दान-आदान के अर्थ में। विधेम = विघ् विधिलिङ् उत्तम पुरुष एकवचन।

कस्मै देवाय हविषा विधेम के विविध अर्थ लिए हैं- कस्मै का अर्थ है - सृष्ट्यर्थ कामयते इति कः प्रजापतिः। 'क' सर्वनाम नहीं है। 'क' सुख का अभिप्राय है। समस्त सुख प्रजापति से प्राप्त होते हैं, अतः वह 'क' है। ऐतरेय ब्रह्मण में प्रजापति को 'क' नाम से अभिहित किया है।

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९.

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव। य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के (१०/१२१) अर्थात् दसवें मण्डल के एक सौ इक्कीसवें सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि हिरण्यगर्भ, देवता (कः) प्रजापति तथा छन्द त्रिष्टुप् हैं।

 प्रसंग - प्रस्तुत मन्त्र में उस हिरण्यगर्भ, प्रजापति या ब्रह्म की विशेषताएँ बताते हुए स्तुति की गई है।

हिन्दी अनुवाद - जो प्रजापति श्वास लेते हुए तथा पलक झपते ही जगत का अपनी महिमा सें अकेला ही ईश्वर हो गया है, जो इन दो पैरों वाले मनुष्यादि तथा चार पैरों वाले पशु आदि का स्वामी है, उससे भिन्न किस देवता की अथवा 'क' नामक प्रजापति की हम सेवा करते रहें।

व्याख्या - सम्पूर्ण संसार को अपनी भुजाओं में व्याप्त किए हुए वह हिरण्यगर्भ तेजस्वरूप और इस सृष्टि का स्वयं ही निर्माण करने वाला है। जो इन दोपायों (मनुष्य आदि) और चौपायों ( जानवर आदि) का रचयिता है। ऐसे उस विभिन्न गुणों, शक्तियों, क्रियाओं आदि से युक्त देवता कौन है अर्थात् वही हिरण्यगर्भ देवता है जिसकी हम सब मिलकर स्तुति करते रहें।

टिप्पणी - प्राणतः = प्र + अन् + शतृ, तस्य। निमिषतः = नि + मिप् + शतृ षष्ठी एकवचन। जगतः = गम् यङ् + (लुक्) शतृ अथवा गम् क्विप् षष्ठी एकवचन। महित्वा = महित्म्नो महित्वनों वा भावः महित्वं तेन। वभूव = भू + लिट् प्रथम पुरुष एकवचन द्विपदः = दौ पादो यस्य सः द्विपाद्, षष्ठी एकवचन। चतुष्पाद् = चत्वारः पादा यस्य सः चतुष्पादः, षष्ठी, एकवचन। ईशे ईश लट् लकार प्रथम पुरुषएकवचन।

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१०.

यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने। यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के (१०/१२१) अर्थात् दसवें मण्डल के एक सौ इक्कीसवें सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि हिरण्यगर्भ, देवता ( कः) प्रजापति तथा छन्द त्रिष्टुप् हैं।

प्रसंग - उक्त मंत्र में प्रजापति की दैनिक प्रार्थना के रूप में, उसकी विशेषताओं को बताते हुए स्तुति की गई है।

हिन्दी अनुवाद - प्रजापति के द्वारा स्थिर किए गए दीप्ति से चमकते हुए शब्द करते हुए द्युलोक और पृथ्वीलोक जिसको मन से देखते हैं, जिसके शासन में उदित हुआ सूर्य चमकता है, ऐसे 'क' देवता को हवि प्रदान कर सेवा करें।

व्याख्या - प्रजापति के लिए कहा गया है कि द्युलोक इसका सिर है तथा पृथ्वी लोक पैर है अर्थात् समस्त सृष्टि को यही स्थिर करता, अपनी दीप्ति से चमकाता है, सम्पूर्ण सृष्टि जिसको मन से देखती है। उसी की इच्छा से उदय होता हुआ सूर्य चमकता है, सुख-स्वरूप उस परमात्मा का हम हवि द्वारा पूजन करें या स्तुति करें।

टिप्पणी - तस्तभाने = स्तम्भ + कानच्, प्रथमा विभक्ति, द्विवचन, स्त्रीलिङ्ग। रेजमाने = राज् + शानच् वैदिक रूप, स्त्रीलिङ्ग प्रथमा विभक्ति, द्विवचन। अथवा रेज् + शानच्। अभ्यैक्षेताम् = अभि + ईक्षि लङ् लकार, प्रथम पुरुष द्विवचन। अवसा = अव असुन अवस् तृतीया, एकवचन, नपुंसक लिङ्ग। उदितः = उत् + इ + क्त। अधि ईश्वर या शासन के अर्थ में कर्म प्रवचनीय है।

क्रन्दसी = द्युलोक और पृथ्वी लोक कहा जाता है कि प्रजापति के क्रन्दन या रुदन से इन लोकों की उत्पत्ति हुई। अतः ये 'क्रन्दसी' तथा 'रोदसी' कहलाते हैं। 'यवरोदीत्तदनयो रोदस्त्वम' (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/९/४) जब इन लोकों का निर्माण हुआ तब इनमें तीव्रगति के कारण शब्द हो रहा था और अग्नि के समान लाल थे।

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११.

यश्चिदापो महिना पर्यपश्चदृक्षं दधाना जनयन्तीर्यशम्। यों देवेष्वधिदेव एक आसीत् कस्मै देवाय हविषा विधेम्॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मंत्र ऋग्वेद के (१०/१२१) अर्थात् दसवें मण्डल के एक सौ इक्कीसवें सूक्त से अवतरित है। इसके ऋषि हिरण्यगर्भ, देवता ( कः) प्रजापति तथा छन्द त्रिष्टुप् हैं।

प्रसंग - उपर्युक्त मंत्र में 'प्रजापति का समस्त जलों पर शासन है' इसी बात को स्पष्ट किया गया है।

हिन्दी अनुवाद - जल धारण करके जिस समय जल ने अग्नि को उत्पन्न किया, उस समय जिन्होंने अपनी महिमा से उस जल के ऊपर चारों ओर निरीक्षण किया तथा जो देवताओं में अद्वितीय देवता हुए इससे अन्य किस देवता को हवि प्रदान कर पूजा करें।

व्याख्या - यज्ञ को उत्पन्न करने वाले और दक्ष प्रजापति को धारण करने वाले जलों को जिस हिरण्यगर्भ ने अपनी महिमा से देखा था, जो देवताओं का प्रमुख अधिष्ठाता देवता है। सुख-स्वरूप उस परमात्मा का हम हवि द्वारा पूजन करें। अर्थात् जलों के स्वामी उस हिरण्यगर्भ की या प्रजापति की हवि द्वारा स्तुति करें।

टिप्पणी - जनयन्ती = जन् + णिच् + ङीप्, द्वितीया के स्थान पर प्रथम पुरुष बहुवचन। आपः = द्वितीया के स्थान पर प्रथम पुरुष बहुवचन के रूप। यह कर्म है, अतः द्वितीया अपेक्षित है। महिना = तृतीया एकवचन। पर्यपश्यत् = परि दृश्, लङ् लकार प्रथम पुरुष एकवचन।

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२०.

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥

सन्दर्भ - उपर्युक्त मंत्र ऋग्वेद के (१०/१२१) अर्थात् दसवें मण्डल के एक सौ इक्कीसवें सूक्त से उदधृत है। इसके ऋषि हिरण्यगर्भ, देवता ( कः) प्रजापति तथा छन्द त्रिष्टुप् हैं।

प्रसंग - विभिन्न गुणों, शक्तियों, क्रियाओं आदि से युक्त देवता कौन है? इन प्रश्नों का उत्तर उक्त मंत्र में दिया है और प्रजापति को सर्वगुण सम्पन्न बताया है।

हिन्दी अनुवाद - हे प्रजापति ! तुम्हारे अतिरिक्त कोई दूसरा इन सम्पूर्ण पदार्थों को नहीं व्याप्त कर सकता, जिस कामना से युक्त हुए हम तुम्हें हवि प्रदान करते हैं, वह हमें प्राप्त हो, हम धन के स्वामी हो जाएँ।

व्याख्या - हे हिरण्यगर्भ प्रजापते ! तुम से भिन्न कोई दूसरा नहीं है, जो सम्पूर्ण उत्पन्न हुए पदार्थों को व्याप्त करके स्थित है। जिन कामनाओं से युक्त होकर हम तुम्हारे लिए आहुतियाँ देते हैं, वे हमारी कामनाएँ पूर्ण हों, हम ऐश्वर्यों के स्वामी हों। इस प्रकार वह प्रजापति मानवों की यशीय अभिलाषाओं को पूर्ण करता और उन्हें ऐश्वर्य का स्वामी बनाता है।

टिप्पणी - यत्कांमाः = ये कामाः येषां ते। जुहुमः ये कामाः येषां ते। जुहुमः = 'हु' लट्लकार, उत्तम पुरुष बहुवचन। स्याम अस्, विधिलिङ्ग, उत्तम पुरुष, बहुवचन। त्वत् = युष्मद् पञ्चमी विभक्ति एकवचन। नः = अस्मद् षष्ठी बहुवचन रयीणाम् = 'रयि' षष्ठी, बहुवचन॥

(५) वाक् सूक्त

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः। अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥१॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र ऋग्वेद के दशम मण्डल के १२५वें सूक्त से उद्धृत किया गया है। यह मन्त्र वाक् सूक्त का प्रथम मन्त्र है। वाक् सूक्त की गणना आध्यात्मिक सूक्तों के अन्तर्गत की जाती है। अष्ट मन्त्रात्मक इस सूत्र की दृष्ट्री अम्भृण ऋषि की पुत्री वाक् है। देवता परमात्मा है तथा छन्द त्रिष्टुप् है ॥१॥

प्रसंग - वाक् परमेश्वरी शक्ति है अतएव यहाँ पर वाक् के सर्वव्यापी स्वरूप का उल्लेख करते हुए जगत् के कारण स्वरूप ब्रह्म के साथ तादात्म्य स्थापित किया गया है और ब्रह्म के अनेक रूपों में शक्ति रूप में भी स्थापित किया गया है ॥१॥

हिन्दी अनुवाद - मैं रूद्रों, वसुओं, आदित्यों और विश्वदेवों के साथ विचरण करती हूँ। मैं दोनों मित्र और वरुण, इन्द्र और अग्नि तथा दोनों अश्विनी कुमारों को धारण करती हूँ ॥१॥

व्याख्या - वैदिक वाङ्मय में वाक् को माया के रूप में परिभाषित किया गया है। जो ब्रह्म के विविध रूपों रुद्रों, वसुओं आदित्यों तथा अश्विनी कुमारों आदि में शक्ति रूप में व्याप्त रहती है। शक्तिमान् (ब्रह्म) और शक्ति (वाक्) के संयोग से ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार होता है। अतः वाक् परमात्मा की दिव्य शक्ति है। जो सम्पूर्ण जड़-चेतन जगत् में व्याप्त है ॥१॥

टिप्पणी - रुदेभिः - रोदयति अन्त काले इति रुद्रः। रुदिर अश्रुविमोचने से रक् प्रत्यय तथणि का लोप। रूद्रेभिः - यह तृतीया बहुवचन में वैदिक रूप है। वसुभिः वसन्तीति वसवः तैः वस् + उ = वसु। चरामि -।चर् धातु, लट् लकार उ० पु० ए० व०। आदित्यैः - तृतीया बहुवचन। आदितेः अपत्यानि अदिति + ण्य। मित्रावरुणा उभा, अश्विना द्वितीया के द्विवचन में वैदिक रूप। यहाँ सर्वत्रऔ के स्थान पर आ हो गया है। लौकिक संस्कृत में मित्रों, वरुणौ, उभौ और अश्विनौ रूप बनेंगे। विभर्मि भृ धातु लट् लकार उ० पु० ए० व० है। ॥१॥

१२ आदित्य - धाता मित्रोऽर्यमा रुद्रो वरुणः सूर्य एव च।

भगो विवस्वान् श्षा च सविता दशमस्त था। एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुर्द्वादश उच्यते।

छन्द के अनुसार 'चराम्यहम्' को 'चरामि अहम्' तथा 'बिभर्म्यहम्' को 'बिभर्मि अहम्' पढ़ा जायेगा

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अहं सोममाहनसं विभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्। अहमं दधामि द्रविणं दृविष्मते सुप्राव्ये ३ यजमानाय सुन्वते ॥२॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र ऋग्वेद (१०/१२५) का दूसरा मन्त्र है तथा इसकी ऋषि वाक् तथा मन्त्र में 'जगती' छन्द है ॥२॥

प्रसंग - प्रस्तुत मन्त्र वाक् अर्थात् परमेश्वरी शक्ति की सर्वव्यापकता को विविध रूपों में प्रकट कर रहा है ॥२॥

हिन्दी अनुवाद - जो सोम प्रस्तर से पीसे जाने पर उत्पन्न होते हैं उन्हें मैं ही धारण करती हूँ। मैं ही त्वष्टा, पूषा तथा भाग को धारण करती हूँ। जो यजमान यज्ञ सामग्री का आयोजन करके और सोमरस प्रस्तुत करके देवों को भली-भाँति सन्तुष्ट करता है, उसे मैं ही धन प्रदान करती हूँ ॥२॥

व्याख्या - वाक् (ब्रह्म शक्ति) के द्वारा स्वयं स्पष्ट किया गया है कि सम्पूर्ण जगत् में जो भी जड़- चेतन पदार्थ हैं, सभी में वह स्वयं ही व्याप्त हैं तथा त्वष्टा, पूषा एवं भाग आदि देवताओं के रूप में संसार के कार्यों में प्रवृत्त हो रही है और वही इस समस्त दृश्य प्रपंच की नियन्त्री जगत् के उपासकों को कर्मानुसार नाना प्रकार की धन-संपत्तियाँ प्रदान करती है ॥२॥

टिप्पणी - आ + न् + असुन् (वैदिक प्रत्यय), द्वितीया एकवचन। त्वष्टारम् त्वक्ष + तृच् द्वितीया एकवचन। हविष्मते ह्रविष + मतुप् ( च०ए० )। सुप्राव्ये सु + प्र + अव + ई + सुप्रावी (च० ए० )। सुन्वते। सु + श्नु + शतृ ( च० ए० )। यजमानाय यज् + शप् + मुक् + शानच् (च०ए०) यज् + शप् + मुक् + शानच् ( च०ए० )। द्रविणं द्रु + इनन्। दधामि धा धातु लट् लकार उ० पु० ए० व० ॥२॥

निरुक्त में मास्क 'आह-----------------------------------------------नसः' की व्याख्या इस प्रकार करते हैं आहननवन्तो वञ्चनवन्तः। रोट तथा ग्रासमैन इसका अर्थ Swelling करते हैं। पीटर्सन Stream और ग्रिफिथ High Swelling करते हैं। गैल्डनर तथा रैनू अच्छी प्रकार आह्वान करने वाला और वेलङर देवों के लिए अत्यधिक अनुकूल अनुवाद कहते हैं। छन्द की दृष्टि से 'विभर्म्यहम्' को 'बिभर्भि अहम्' तथा 'सुप्राव्ये' को 'सुप्रावीए' ऐसा उच्चारण करना चाहिए ॥२॥

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अहं राष्ट्री संगमनी वसूनांचिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥३॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त्र ऋग्वेद (१०/१२५) का तीसरा मन्त्र है। जोकि त्रिष्टुप् छन्द में निबद्ध है।

प्रसंग - सम्पूर्ण जगत् के संपूर्ण कार्यों में व्याप्त वाक् के अद्वैत रूप का वर्णन प्रस्तुत मंत्र में किया गया है ॥३॥

हिन्दी अनुवाद - मैं विश्व पर शासन करने वाली, धनों को प्राप्त कराने वाली, सब कुछ जाननेवाली और पूजनीय देवताओं में प्रथम हूँ। अनेक रूपों में स्थित और अनेक पदार्थों को अपने अन्दर प्रवेश कराती हूई मुझको देवताओं ने अनेक स्थानों पर विभक्त कर दिया है ॥३॥

व्याख्या - जिस प्रकार ब्रह्म के विविध रूपों को व्यक्त करने वाली उसकी शक्ति वाक् है, उसी प्रकार मनुष्य के अन्तःकरण को व्यक्त करने वाली उसकी शक्ति वाक् है। यही कारण है कि वह समस्त देवताओं में भी अग्रया है और संसार के समस्त प्राणियों एवं पदार्थों में भी नाना रूपों में व्याप्त है तथा स्वइच्छानुसार देवों एवं मनुष्यों को प्रिय लगने वाले सारे वचन वह स्वयं ही बोलती है। स्वयं ही जीवों को कर्मानुसार उग्र, वीर, ब्रह्मज्ञानी, ऋषि अथवा सबुद्धिमान बनाती है ॥३॥

टिप्पणी - राष्ट्री राज् + ष्ट्रन राष्ट्र, राष्ट्र + इनि + ङीष्। संगमनी- - चिकितुषी कित् + क्वसु + डीप। यज्ञियानायज्ञम् अर्हन्ति इति यज्ञियः तेषाम्। यज्ञ +सम् + गम् + ल्युट् + ङीप। घ ( इयं )।

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मया सो अन्नमन्ति यो विपश्यति यः प्रणितिय ईशृणोत्युक्तम्। अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥४॥

सन्दर्भ - त्रिष्टुप् छन्द में उपनिबद्ध यह मन्त्र ऋग्वेद के वाक् सूक्त (१०/१२५) से उद्धृत किया गया है ॥४॥

प्रसंग - उपर्युक्त मन्त्र में दर्शाया गया है कि सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन (उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार ) ब्रह्म शक्ति वाक् के द्वारा होता है ॥ ४॥

हिन्दी अनुवाद - जो अन्न खाता है, जो देखता है, जो श्वास लेता है और जो मेरे इस कहे हुए वचन को सुनता है वह सब मेरे द्वारा ही होता है, जो मुझे नहीं जानते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। हे प्रसिद्ध ऋषे। सुनो, मैं तुम्हें श्रद्धा करने योग्य बात बतलाती हूँ ॥४॥

व्याख्या - संसार के समस्त प्राणी जो कुछ व्यवहार करते हैं वे सब ब्रह्म शक्ति वाक् द्वारा ही प्रेरित होकर विभिन्न कार्य व्यापारों में प्रवृत्त होते हैं। जो अहङारी मनन चिन्तन से ४ राङ्मुख होकर ब्रह्म शक्ति को नहीं स्वीकार करते हैं वे नष्ट हो जाते हैं और जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े रहकर नाना- विधयोनियों में भटकते रहते हैं। ऐसे पुरुषों को सम्बोधित करती हुई वाक् कहती है कि मैं तुम्हें श्रद्धा करने योग्य विषय बतला रही हूँ ॥४॥

टिप्पणी - प्राणिति + प्र + अन् धातु लट् लकार प्र० पु० ए० व०। अन्नम् - अद्यते भक्ष्यते इति अद् = क्त अमन्तवः न मन्तवः अमन्तवः। नञ् + मन् + तु अमन्तु, पु० ब० अमन्तवः।

उपक्षियन्ति - उप + क्षि धातु लट् लकार प्र० पु० ब० व०। श्रुतश्रु + क्त। श्रुधि श्रु धातु लोट् लकार म० पु० ए० व० (वैदिक रूप)। श्रत सत्यं दधाति श्रत् + धा + कि = श्रद्धि, श्रद्धि अस्य अस्ति इस अर्थ में प्रत्यय होकर श्रद्धिव रूप बनता है।

पाश्चात्य विद्वान् इसका अन्वयसायण से भिन्न प्रकार का करके यह अर्थ करते हैं 'जो देखता है, जो श्वास लेता है और जो सुनता है वह मेरे द्वारा ही अन्न को खाता है। ते माम् उपक्षियन्ति इसका अर्थ वेङ्कटमाधव। ते वृथा माम् उपनिवसन्ति। करते हैं जबकि सायण 'उपक्षीणाः संसारेण हीनाः भवन्ति लिखते हैं। श्रद्धिवं का अर्थ वेङ्कटमाधव श्रद्धेयं करते हैं। ग्रासमैन, गैल्डनर आदि विद्वान् भी यही अर्थ स्वीकार करते हैं। पीटर्सन तथा ग्रिफिथ इसका अर्थ Truth करते हैं। छन्द के अनुरोध से 'सो अन्नम्' 'सोऽन्नम्' तथा 'श्रृणोत्युक्तम्' को 'श्रृणोति उक्तम्' पढ़ना चाहिए ॥४॥

५.

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः। यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥५॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत मन्त ऋग्वेद के वाक् सूक्त (१०/१२५) से उद्धृत किया गया है जो त्रिष्टुप् छन्द में निबद्ध है ॥५॥

प्रसंग - 'वाक् का स्वरूप अति विशालकाय है, जिसने इस नश्वर जगत् को ही नहीं अपितु उस अनश्वर लोक को भी अपने आवरण से ढक रखा है। बड़े से बड़े ऋषि, महात्मा, देवी देवता तकं वाक की महिमा से प्रभावित हैं तो सामान्य मानव कैसे अछूता रह सकता है। यही कारण है कि वह जिसे जैसा चाहती है वैसे ही रूप में परिवर्तित कर देती है ॥५॥

हिन्दी अनुवाद - मैं स्वयं ही देवताओं तथा मनुष्यों के लिए प्रिय (बात ) कहती हूँ तथा जिसे जिसे चाहती हूँ, उसे ब्रह्मा, ऋषि और ज्ञानी बना देती हूँ ॥५॥

व्याख्या - वाक् अर्थात् ब्रह्म की पराशक्ति यह स्वयं प्रतिपादित कर रही है कि मैं स्वयं ही देवताओं और मनुष्यों के द्वारा प्रीतिपूर्वक स्वीकार की जाती हूँ। यह समस्त जगत् मेरी महिमा से ही महिमान्वित है और यह जगत् ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मेरी ही प्रभुताई है मेरी ही शक्ति से कोई वेदमन्त्र ज्ञाता, भूत-भविष्यत् का द्रष्टा ऋषि और श्रेष्ठ वाला बनता है ॥५॥

टिप्पणी - वदामि वद् धातु लट् लकार उ० पु० ए० व०। जुष्टं जुष् + क्त्। देवेभिः मानुषेभिः = तृ० ब० में वैदिक रूप। लौकिक में देवैः - मानुषै० रूप बनेंगे। कामयेकमु + कान्तौ धातु आत्मनेपद उ०पु० ए० व०। उग्रं = उच् + रन्। निपातनात् गुणाभाव। ब्रह्माणं- बृहं वृद्धौ धातु से मनिन् प्रत्यय। कृणोमि। कृ धातु लट् लकार उ० पु० ए० व०। प्रत्यय से इनु इत्यय लौकिक संस्कृत में करोमि रूप बनता है। ऋषि ऋषि गतौ धातु से इनि प्रत्यय।

सुमेधाम् - शोभना मेधायस्य तम्। लोक में सुमेधम् रूप बनता है। आचार्य सायण उग्रं को 'सर्वेभ्योऽधिकम्' लिखते हैं जबकि पीटर्सन 'बलवान्' अर्थ करते हैं। ऋषि शब्द की व्याख्या निरुक्त में इस प्रकार की गयी है ऋषि दर्शनात् स्तोमान् ददर्शोत्यौपमन्यवः (नि० २/३/३) ऋषिः मन्त्र द्रष्टा गत्यर्थ त्वात् ऋषेर्ज्ञानार्थत्वाद् मन्त्रं दृष्टवन्तः ऋषयः श्वेतवनवासिवृत्ति उणादिसूत्र।'

६.

अहं रुद्राय धनुरातनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ। अहं जनाय समदं कृणोभ्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥६॥

सन्दर्भ - त्रिष्टुप् छन्द में रचित यह मन्त्र ऋग्वेद से वाक् सूक्त (१०/१२५) का छठां मन्त्र है ॥६॥

प्रसंग - सत्य पर चलने वालों की सदा विजय होती है, देवी-देवता भी सत् हैं। उस मन्त्र में ब्रह्म का आशय (वेदों या ब्राह्मणों) अथवा सदाचार का पालन करने है। जिनकी रक्षा हेतु वाक् सदैव तत्पर रहती है ॥६॥

पुरुष का साथ देते वाले लोगों के लिए

हिन्दी अनुवाद - ब्रह्म द्वेषी हिंसक को मारने के निमित्त में रुद्र के धनुष की प्रत्यञ्चा को चढ़ाती हूँ मैं अपने भक्त जनों के लिए युद्ध करती हूँ और मैं ही द्युलोक और पृथ्वी लोक में व्याप्त हो रही हूँ।

व्याख्या - वैदिक ऋषियों को अटूट आस्था एवं विश्वास था कि सुकृत कर्म करने वाले, दिव्य प्रकृति वाले मानवों की सदा जय होती है। ऐसे सत् पुरुषों से जो द्वेष की भावना रखता है उसका वध करने हेतु स्वयं भगवान् को भी अवतार लेना पड़ता है। प्रस्तुत मन्त्र में भी ऐसा ही दर्शाया गया है। स्वयं परमात्मा की पराशक्ति वाक् वेद तथा ब्राह्मण से द्वेष रखने वाले पापियों को विनष्ट करने हेतु रुद्र को प्रेरित करती है और स्वयं भी अपने भक्तों के लिए शत्रुओं के साथ युद्ध करती है ॥६॥

टिप्पणी - रुद्राय यहाँ षष्ठी के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति हुई है। आतनोमि अ + तनु विस्तारे धातु लट् लकार उ०पु० ए०व०। ब्रह्मद्विषे = ब्रह्म द्वेष्टि इति ब्रह्म द्विट् तस्मै ब्रह्मन् + द्विष + क्विप। यहाँ भी द्वितीया के अर्थ में चतुर्थी हुई है। हन्तवै हन् + तवै। वेद में तुमुन् के अर्थ में तवै प्रत्यय होता है। हन्तवा उ - हन्तवै + उ ऐ को आय आदेश तथा य का लोप होकर हन्तवा उ रूप बनता है। समदं समानं माद्यन्ति अस्मिन् स + मद् + क्विप् द्वि० ए०। द्यावापृथिवी द्यौश्च पृथिवी चेति तौ (द्वन्द्व समास) को धावा आदेश, वैदिक रूप। आविशेष - आ + विश् धातु लिट् लकार उ०पु०ए०व०। ब्रह्माद्विषे शखा हन्तवा उ वेङट माधव ने 'ब्राह्मणानां द्वेष्टारं हन्तव्यं हन्तुम्' किया है।

७.

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्व अन्तः समुद्रे। ततो वितिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोपस्पृशामि ॥ ७ ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुतं मन्त्र ऋग्वेद (अष्ट मंत्रात्मक वाक् सूक्त) (१०/१२५) से लिया गया है। यह त्रिष्टुप् छन्द में रचित है ॥ ७ ॥

प्रसंग - वेद में वाक् अर्थात् माया को ब्रह्म की त्रिपुर सुन्दरी, जगदम्बा और विराट् शक्ति के नाम से भी सम्बोधित किया गया है। प्रस्तुत मन्त्र भी वाक् के विराट् स्वरूप को प्रस्तुत कर रहा है ॥ ७ ॥

हिन्दी अनुवाद - मैं इस (दृश्यमान जगत्) के ऊपर पिता स्वरूप द्युलोक को उत्पन्न करती हूँ, मेरा उत्पत्ति स्थान जल के भीतर समुद्र में है, वहाँ से मंा सभी लोकों में अनेक रूपों में स्थित हो जाती और शीर्ष भाग से उस द्युलोक को स्पर्श करती हूँ ॥ ७ ॥

व्याख्या - ब्रह्म की विराट् शक्ति वाक् इस मंत्र में प्रतिपादित कर रही है कि मैं ही इस दृश्यमान प्रपंच जगत् के ऊपर द्युलोक में स्थित सृष्टि के उत्पादक तथा पालक पिता सूर्य को उत्पन्न करती हूँ तथा समुद्र रूप परमात्मा में स्थित होकर मैं वहीं से सृष्टि व्यापार में प्रवृत्त होती हूँ और समस्त लोकों में फैलती हूँ। इसी सृष्टि के पतनोन्मुख होने पर पुनः जगत् को उत्पन्न करने हेतु ब्रह्म से प्रकट होती हूँ ॥ ७ ॥

टिप्पणी - मूर्धन् - स०वि० का ए० व०। यहाँ व्यत्यय से विभक्ति का लोप हो जाता है। योनिः - यु + नि। समुद्रे समुद्रवन्ति भूतजातानि सम्यग् उन्दन्ति अत्र। अथवा चन्द्रोदयात् समुन्दयति सम् + उन्द् + रक्। वितिष्ठे वि + स्था धातु लट् लकार उ०पु० ए०व०। भुवना भुवनानि का वैदिक रूप। विश्वा- विश्वानि का वैदिक रूप। वर्ष्मणा वर्षति ददाति सुख दुःखे जीवात्मने इस विग्रह में वृह धातु से मनिन् प्रत्यय होकर वर्ष्मन् रूप बनता है, तृतीया के एकवचन में वर्ष्मणा। उपस्पृशामि उप + स्पृश् धातु लट् लकार उ०पु० ए०व०।

'अहं सुवे पितरम् अस्य मूर्धन' की व्याख्या वेङट माधव ने 'अहं प्रेरयामि आदित्यम् अस्य लोकस्य मूर्धन्' की है। ग्रासमैन, ग्रिफिथ, गैल्डनर आदि, विद्वानों ने सायण के आधार पर 'सुवे' का अर्थ I bring earth किया है। पीटर्सन इस चरण का अनुवाद "I set my father over all the world" करते हैं। पितरम् का अर्थ वेङ्कटमाधव आदित्यम् करते हैं। सायण 'दिवम् द्यौः पिता इस तैत्तिरीय ब्राह्मण वाक्य के आधार पर लिखते हैं। पाश्चात्य विद्वान् इसका शाब्दिक अनुवाद Father करते हैं। वर्ष्मणा की निष्पत्ति रॉथ ने वर्षीयस् और वर्षिष्ठ की तरह करते हुए 'The Crown ' का अर्थ किया है।

८.

अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा। परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥८॥

सन्दर्भ - अष्ट मन्त्रों से युक्त ऋग्वेद (१०/१२५) के वाक् सूक्त का यह अन्तिम मन्त्र है जो कि 'त्रिष्टुप् छन्द में निबद्ध है ॥ ८ ॥

प्रसंग - उपर्युक्त मन्त्र में यह स्पष्ट किया गया है कि यह निखिल जगत् जिसकी अचिन्त्य शक्ति का विलास है, के कण-कण में वह वायु रूप में विद्यमान है तथा अपनी सर्व व्यापकता के कारण वाक् ही द्युलोक है, वाक् ही अन्तरिक्ष है तथा वाक् ही पृथ्वी लोक भी है ॥ ८ ॥

हिन्दी अनुवाद - मैं ही सकल भुवनों को उत्पन्न करती हुई, वायु की भांति प्रवाहित होती हूँ। मैं द्युलोक से परे तथा इस पृथ्वीलोक से (भी) परे (बढ़कर) हूँ। मैं अपनी महिमा के कारण इतनी विशाल बन गयी हूँ ॥ ८ ॥

व्याख्या - ब्रह्म की संपूर्ण शक्ति वाक् अर्थात् माया में निहित है और वह शक्ति- शक्तिमान् (ब्रह्म) से पृथक् नहीं हो सकती, उन दोनों के बीच अन्योन्याश्रम सम्बन्ध है। शक्तिमान् अपनी शक्ति के द्वारा ही विविध स्वरूपों को प्रस्तुत करता है अतएव इस समस्त जगत् प्रपंच का कारण ब्रह्म की पराशक्ति वाक् है जो समस्त लोकों का निर्माण करती हुई वायुवत् समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है और अपनी ही महिमा से मण्डित होकर द्युलोक और पृथ्वी लोक से भी परे जगत् के कार्यों में प्रवृत्त है ॥ ८ ॥

टिप्पणी - प्रवामि प्र + वा धातु लट् लकार उ० पु० ए० व०। आरभमाणा आ + र + शानच् + यप्। विश्वा विश्वानि का वैदिक रूप है। परः परस्तात् के अर्थ से सकारान्त अव्यय। एना इदम्- एतत्। परिमाणम् लिट् शब्द के स्थान पर एन आदेश तृतीया एकवचन। लौकिक में एनेन बनाता है। एतावती अस्ति अस्याः। एतत् + मतुप् + लिङीप्। महिना महत् + इमनिच् (तृ० ए० व०) सबभूव सम् + भू - लकार प्र० पु० ए० व०। छन्द के अनुरोध से 'वाग्यारभमाणा' के स्थान पर 'वामि आरभमाणा' और 'पृथिव्यैतावती' के स्थान पर 'पृथिव्या एतावती' पढ़ना उचित है। ८ ॥

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
  3. प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
  4. प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
  7. प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  8. प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
  10. प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
  12. प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
  13. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
  14. प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
  18. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
  19. प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
  21. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
  22. प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
  23. प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  28. प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  31. प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
  32. प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
  33. प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
  34. प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
  35. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
  36. प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
  37. प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
  38. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
  39. प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
  40. प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
  41. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
  42. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
  43. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
  45. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  46. प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
  48. प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
  49. प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
  51. प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
  52. प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
  53. प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
  54. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
  56. प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
  57. प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
  58. प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
  59. प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
  60. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
  61. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
  62. प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
  63. प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
  64. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
  65. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  66. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  67. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  68. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  69. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  70. प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
  72. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  73. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  74. प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
  75. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  76. प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
  77. प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
  78. प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
  79. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  80. प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
  83. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  84. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
  85. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
  86. प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
  87. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
  88. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
  89. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
  90. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
  91. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
  93. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
  94. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
  95. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
  96. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
  97. प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
  99. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
  100. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
  101. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
  102. प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
  104. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  105. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
  106. प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
  108. प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।

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